।। श्रीहरिः ।।
भक्त-१
  • भक्त वह है, जो केवल भगवान् को ही केवल अपना मनाता है । भगवान् मिलें, न मिलें, उनकी इच्छा । उनसे लेना कुछ नहीं है । केवल भगवानको अपना मान लेना ही भगवानको प्रिय है । शान्ति, मुक्तिसे भी बढ़कर भक्ति है ।
  • भक्त वह बनाता है, जो जीवन्मुक्तिको ठुकरा देता है ।
  • भक्ति स्वतंत्र इसलिए है कि जगत् का आश्रय उसे नहीं चाहिए । भगवानसे भी उसे कुछ नहीं चाहिए ।
  • आत्मीयता वाही कर सकता है, जो भोग और मोक्षको फुटबाल बनाकर ठुकरा दे ।
  • प्रेम भी भिन्नसे नहीं होता और मुक्तिमें भिन्नका अस्तित्व ही नहीं रहता । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ वास्तविक मुक्ति है, वहीँ पूर्ण प्रेम है ।