।। श्रीहरिः ।।


अनुकूलता-प्रतिकूलता



प्रतिकूलताका उतनी ही आती है, जितनी सहन हो सके और अनुकूलता उसी समय तक रहती है, जब तक उसमे जीवन-बुद्धि न हो ( ऐसा मानना की यही परिस्थिति मेरे लिए सुख-शान्तिका आधार है, इसके बिना मेरा जीवन अधुरा है -यह परिस्थितिमे जीवन-बुद्धि है), अर्थात प्रत्येक साधकको अनुकूलता तथा प्रतिकूलताका सदुपयोग करना है। अनुकूलताकी दासता और प्रतिकूलाताके भयका साधकके जीवनमें कोई स्थान नहीं है । प्रभुके मंगलमय विधानके अनुसार हमारी आसक्तियोंका अंत करनेके लिए अनेक प्रकारकी प्रतिकूलताएँ अपने आप आ जाती हैं, किंतु प्राणी प्रमादवश उन प्रतिकूलताओंको अनुकूलतामें परिवर्तित करनेके लिए अथक प्रयत्न करता है । यद्यपि प्रतिकूलता अपने-आप आती-जाती है, परन्तु प्राणी उससे भयभीत होकर जो नहीं करना चाहिए, उसे करने लगता है और जो करना चाहिए, उसे भूल जाता है ।