।। श्रीहरिः ।।


श्रीगीताजीकी महिमा



भगवद्गीता एक बहुत ही अलौकिक, विचित्र ग्रन्थ है । इसमे साधकके लिए उपयोगी पूरी सामग्री मिलती है, चाहे वह किसी भी समुदायका, किसी भी सम्प्रदायका, किसी भी वर्णका, किसी भी आश्रमका कोई व्यक्ति क्यों न हो । इसका कारण यह है की इसमें किसी समुदाय-विषेशकी निंदा या प्रशंसा नहीं है । प्रत्युत वास्तविक तत्वका ही वर्णन है । इस छोटे-से ग्रंथमें इतनी विलक्षणता है कि अपना कल्याण चाहनेवाले साधकको अपने उद्धारके लिए बहुत ही संतोषजनक उपाय मिलते हैं । अपना उद्धार चाहनेवाले सब-के-सब गीताजी के अधिकारी हैं । प्रत्येक व्यवहार मात्रमें परमार्थकी कला गीताजीमें सिखाई गयी हैं । यह एक प्रासादिक ग्रन्थ हैं । जीव संसारसे विमुख होकर भगवानके सम्मुख हो जाय और भगवानके साथ अपने नित्य सम्बन्धको पहचान लें— इसीके लिए भग्वद्गीताका अवतार हुआ है ।
जीवमात्रका मनुष्ययोनिमें जन्म केवल अपने कल्याणके लिए ही हुआ हैं । संसारमें ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं है, जिसमें मनुष्यका कल्याण न हो सकता हो । कारण कि परमात्मतत्त्व प्रत्येक परिस्थितिमें समानरुपसे विद्यमान है । अतः साधकके सामने कोई भी और कैसी भी परिस्थिति आये, उसका केवल सदुपयोग करना है । स्वामीजी महाराज फरमाते है कि जब गीताप्रेमी सज्जनोंने विशेष आग्रह किया, हठ किया, तब गीताके मार्मिक भावोंका अपनेको बोध हो जाय तथा और कोई मनन करे तो उसको भी इनका बोध हो जाय-- इस द्रष्टिसे गीताकी व्याख्या लिखवानेमें प्रवृति हुई । टीका लिखवाते समय 'साधकोंको शीघ्र लाभ कैसे हो' --ऐसा भाव रहा है । गीताका मनन-विचार करनेसे और गीताकी टीका लिखवानेसे मुझे बहुत आध्यात्मिक लाभ हुआ है और गीताके विषयका बहुत स्पष्ट बोध भी हुआ है । दुसरे भाई-बहन भी यदि इसका मनन करेंगे,तो उनको भी आध्यात्मिक लाभ अवश्य— ऐसी मेरी व्यक्तिगत धारणा है । गीताका मनन-विचार करनेसे लाभ होता है— इसमें मुझे कभी किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है ।
अतः हमारे उद्धार-कल्याणके लिए स्वामीजी महाराजजीने साधकसंजीवनीरूपी जहाज इस भवसागरसे तरनेके लिये प्रदान किया है, उसका लाभ लेकर हम सभी साधक भाई-बहने पार हो— इसी भावसे हम स्वामीजी महाराजके उपदेशोंका मनन-चिंतन करेंगे ।

-- श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी टीकाके प्राक्कथनसे

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