।। श्रीहरिः ।।





नित्ययोगकी प्राप्ति




क्रिया मात्र प्रकृति में हो रही है और निरंतर, हरदम होती ही रहती है । परिवर्तन नाशकी तरफ ले जा रहा है । उत्पत्ति-विनाश-उत्पत्ति — यह विनाशका क्रम है । यह क्रम हमें स्थायिरुसे दीखता है । यह स्थायिरुसे देखना गलती है ।
प्रकृतिमें क्रिया होती रहती है, लेकिन पुरुष (स्वयं) में कभी क्रिया होती ही नहीं । संयोगकी रूचि स्वयंमें होती है । संयोगकालमें ही वियोगका अनुभव कर लें तो गीताजीके अनुसार योग सिद्ध हो जाय ।
हम जो भी क्रिया करते है— देखना, सुनना, बोलना आदि, वह हरदम निवृतिकी ओर जा रहा है । जैसे बोलना न बोलने की ओर, देखना न देखने की ओर ...बोलते, देखते थक जाओगे ओर कुछ न करनेकी स्थितिमें सहज जा रहे हो । लेकिन रागके कारण, संयोगकी आसक्ति के कारण हमारा जो सहज निवृत्ति हो रही है उसकी तरफ ध्यान न जाकर, हमें प्रवृत्ति ही दिखती है । उसी सहज निवृतिको लेकर ही गीताजीमें — ‘ गुणा गुणेषु वर्तन्ते ’, ‘ इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेषु ‘....आदि कहा है । और हमें इस हरदम विनाशके क्रममें भी ‘ विनश्यतषु अविश्यन्तम् ‘, ‘ समं पश्यन्हि सर्वत्र ‘ ... यह देखना है ।
संयोगकी रूचि होती है, फिर करनेकी रूचि होती है — यही कर्म बंधन कराती है । अपने आपमें अपनी स्थितिके लिए ही सब साधन है । यही नित्ययोग है । निवृत्ति सहज, स्वाभाविक है — इसीका आदर करना, ख्याल करना उद्धारका सही उपाय है ।
क्रिया विभाग और अक्रिय विभाग अलग-अलग है । बालकपन,युवानीमें, ‘ मैं वही हूँ ‘ – तो बालक,युवावस्थामें क्रिया हो रही है और ‘ मैं वही हूँ ’— यह अक्रिय विभाग – स्वरुपसे ‘ वही हूँ ‘, “ है “ रूपसे सदा है ।
अतः जो क्रिया हो रही है, वह स्वतः निवृत हो रही है; पर संयोगकी आसक्तिसे प्रवृत्ति दिख रही है, स्थायिपना दिखता है । करने और पानेकी रूचिसे बंधन होता है । संयोगकी रूचि सुखकी प्राप्तिके लिए ही करता है ।

-दि.२१/१०/१९९०, प्रातः प्रार्थनाकालिन प्रवचनसे