।। श्रीहरिः ।।


उत्तम श्रद्धाका स्वरुप



श्रोता— उत्तम श्रद्धाका स्वरुप क्या है ?
स्वामीजी— उत्तम श्रद्धाका स्वरुप यह है की जिस पर आपकी श्रद्धा हो, वह यह कह दे कि यह सब भगवान है तो भगवान् ही दिखने लगे, साक्षात् परमात्मा दिखने लग जाय । मकान बना हुआ ईंट, चूना, पत्थरसे है और जिस पर आपकी श्रद्धा हो, उत्तम श्रद्धा हो, वह यह कह दे कि सोनेका मकान है; तो बिलकुल सोनेका दिखने लग जाय, मकान सोनेका दिखने लग जाय, साफ-साफ । संदेह किन्चित् मात्र भी न रहे । यह उत्तम श्रद्धा है । उत्तम श्रद्धालुके लिए कुछ करना नहीं रहता है । शास्त्रमें लिखा है, संत-महात्मा कहते है; वैसा ही अनुभव होने लगे । यह उत्तम श्रद्दा होती है ।
उत्तम श्रद्धा उत्पन्न होती है संसारके विश्वासका त्याग करनेसे । नाशवानका विश्वास मत करो । ठीक श्रद्दा हो जाएगी । नाशवानका भरोसा मत रखो, नाशवानका आश्रय मत लो, अगर उत्तम श्रद्दा चाहते हो तो ! नाशवानका भरोसा लो, नाशवानका विश्वास लो, नाशवानका आश्रय लो तो उत्तम श्रद्दा कैसे पैदा होगी ? बिलकुल जानते है, एक छोटीसी बात कहूँ मैं कि आप जिसको असत् मानते हो, नाशवान मानते हो, वह असत् को सत् मत मानो । इतनी ही बात है । हमने वचन पढ़ा है, बहुत विचित्र लगा, अपने जाने हुए असत् का त्याग । इतनी ही बात है । जिनको आप असत् जानते हो उनका त्याग कर दो । जाने हुए असत् के त्यागमें एक बात हमारे मनमें आयी, आप ध्यान दे, इस बात पर, कृपा करें । यह संसार सत् है कि असत् है कि सत्-असत् से विलक्षण है— ऐसा वर्णन आता है । कई तरह के मतभेद है । परन्तु इसमें सार बात एक है कि इसके साथ हमारा सम्बन्ध है, यह असत् है । बहुत बढिया बात मेरेको लगी है, वह बताई है आपको । मतभेद बहुत है । संसार कैसा है ? ईश्वर कैसा है ? जीव कैसा है ? क्या है ? इसमे बहुत मतभेद, मत-मतान्तर है, बड़ी-बड़ी पुस्तकें है । उनमें सार चीज है । मैंने देखा है, पढ़ा है, सुना है, समझा है, उनमें सार चीज यह है कि संसारके साथ जो हमारा सम्बन्ध है— यह असत् है । संसार चाहे सत् हो, चाहे असत् हो, चाहे सत्-असत् से विलक्षण हो । इसके साथ हमारा सम्बन्ध है, यह सत् नहीं है । सम्बन्ध— माता-पिताका है, स्त्री-पुत्रका है, भाई-भोजाईका है, संसारका है, रुपये-पैसोंका है, मकानका है; जो हमारा सम्बन्ध है इसके साथ, वह छूट जायेगा । अगर हिम्मत करके मान लो तो बहुत ही सार चीज है यह ! इसमें जीतनी शंका हो, वह बात कर लो । जो संदेह हो, आप पूछ लो और निश्चिन्त, निशंक हो जाय तो मान लो । कैसा ही हो संसार, हमारा सम्बन्ध था नहीं और रहेगा नहीं और अभी छूट रहा है — यह तीन बात है इसमें, विस्तार करें तो । और पहले कही वह कहे तो जाने हुए असत् का त्याग, कि यह असत् है उसका त्याग करो ।
उसमें यह बात विलक्षण बताई, मेरेको विलक्षण मालूम दी —संसारके साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा । हमारा सम्बन्ध हमने मान रखा है, यह सम्बन्ध विवेक विरोधी है । आपका विवेक है, उससे विरोधी है । आपकी जो समझ है, आपका निर्णय है, आपकी समझदारी है, आपकी दलील है; इससे बिलकुल विरोध है इसका । सम्बन्ध टिकेगा कितना यह बताओ ? शरीरके साथ सम्बन्ध कितना टिकेगा ? कुटुम्बके साथ सम्बन्ध कितने दिन टिकेगा ? रुपयों-पैसोंके साथ कितने दिन सम्बन्ध रहेगा ? यह सम्बन्ध रहेगा क्या ? अतः वस्तुओंका सदुपयोग करो और व्यक्तियोंकी सेवा करो । वैसे आप छोडकर जा नहीं सकते है, छूटता आपसे है नहीं ! जहाँ जाओगे, वहाँ सम्बन्ध होगा या बना लोगे !!! दुसरोंका हित करो । ‘ सर्वे भवन्तुः सुखिनः ‘ ऐसा ह्रदयमें भाव रखो । धन-संपत्तिका उपार्जन करो, परन्तु सदुपयोग करो । और भीतरसे पक्की बात जची हुई हो कि यह सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है । यह सम्बन्ध टिकनेवाला नहीं है । क्योंकि है ही नहीं !! केवल माना हुआ सम्बन्ध है । मात्र वस्तुके साथ जो सम्बन्ध है, वो केवल अपना माना हुआ है । अगर इसमें आपको नहीं जचती हो तो बोलो ? शंका करो ? मेरे विचारमें आयी है, वह बात कही है आपको । पुस्तकें पढनेसे, संतोंकी, बड़े-बड़े आचार्योंके मतभेद देखनेसे; जो कई तरहके मत है — संसारको कई तरहसे देखते है, प्रकृतिको कई तरहसे देखते है, परमात्माको कई तरहसे देखते है, जीवात्माको कई तरहसे देखते है !! किसका नाम जीव है ? जगत है ? परमात्मा है ? प्रकृति है ? संसार है ? — इनके बड़े मतभेद है । पर सार चीज यह है कि— इनके साथ अपना सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है । यह सार है । सम्बन्ध अनित्य है । तो क्या करें ? उससे सुखकी चाहना न रखें, अपने हितकी चाहना न रखें । उनको सुख कैसे पहुँचें ? व्यक्तियोंके साथ ऐसे भावसे सेवा करें और वस्तुओंका सदुपयोग करें । ऊँचेसे-ऊँचे काममें, अच्छेसे अच्छे काममें वस्तुओंको लगाओ । अपनी मत मानो । अपने साथ रहनेवाली नहीं है । मौका है लगाने का,सदुपयोग कर दो । ‘ समय चुकी पुनि क्या पछिताने....। ’
(शेष आगेके ब्लोगमें )
— दि॰21/06/1990 के प्रातः5 बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
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