।। श्रीहरिः ।।


सीखना और अनुभव करना





बढ़िया बात दो तरह कि होती है । (१) जिसमें गहरा विवेचन हो, गहरा विवेचनसे सबको ज्ञान होता है और (२) जिसमें अपनी साधना में, अड़चन, रूकावट आती हो ।
श्रोता — गति किसकी होती है ? शरीरकी कि आत्माकी ? शरीर तो यहीं ही छूट जाता है और आत्मा तो नित्यमुक्त, सर्वत्र है ।
स्वामीजी — साधन करनेवाले सज्जनोंको चाहिए कि जो साधन करते है उस बातका अनुभव करें । एक सीखी हुई बात होती है और अनुभवकी बात और तरहकी होती है । तो सीखी हुई बातोंको पकड़कर जो करते है, उसका साधन ठीक नहीं होता । यह जो आत्मा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है —यह सीखी हुई बात है । अथवा आप जितने बैठे हो, वे बता दो कि आपका अनुभव है कि मै शुद्ध, बुद्ध, मुक्त हूँ ? मेरेको कोई बंधन नहीं है ? —क्या ऐसा अनुभव है ? किसी भाई-बहनको; हो तो बताओ ? कोई राग, द्वेष, हर्ष, शोक कोई बंधन नहीं है ? ऐसा कोई एक भाई हो तो बताओ ? तो यह सुनी हुई बात है । यह मेरी समझसे अनुभव नहीं है । अनुभव हो तो बोलो ? तो केवल सीखी हुई बातसे काम नहीं चलता । किसीका नाम लखपति हो तो क्या नाम होनेसे उसके पास लाखों रुपयें हो जायेंगे ? अगर ऐसा हो तो सब अपना नाम लखपति, करोड़पति,अरबपति धर दें ! तो शुद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मा है यह सुनी हुई बात है, अनुभव नहीं है ।
वरना शंका क्यों होती है ? गति किसकी होती है ? आत्मा मुक्त है और शरीर यहीं छूट जाता है ? सुनी हुई बात है, पर ठीक तरहसे बैठती नहीं, जचती नहीं । यदि आप अपना अनुभव करोगे तो आपमें अशुद्धि है, अनजानपना है और मेरेको कई तरहके बंधन है, राग, द्वेष, हर्ष, शोक, दिखावपना, दंभ, पाखंड है, छिपाव है —ऐसे कई दोष दिखते है । तो वह कैसे कह सकता है कि मै शुद्ध, बुद्ध, मुक्त हूँ ? यह सीखी हुई बात काममें नहीं ला सकते, काम आएगी नहीं ।
शरीरी कभी शुद्ध, बुद्ध, नहीं हो सकता, होगा नहीं, हो सकता नहीं ! ‘शरीरी’ शब्दका अर्थ है शरीरवाला, शरीरवाला कैसे मुक्त होगा ? मुक्त शरीरके सम्बन्ध विच्छेदसे ही होता है । शरीरका मालिक रहते हुए सदा बंधन ही रहेगा । शरीरी होकर वह मुक्त कैसे होगा ? स्वरुप शरीर रहित होता है । परमात्मा शरीरी कैसे हो सकता है ? शरीरको अपना मानना ही बंधन है । वह अपना स्वरुप कैसे होगा ? वह तो मिलता है और बिछुड जाता है ।
सरलतासे ठीक तरहसे कहेगा तो यही अनुभव होगा कि मै क्या हूँ ? तो यह अनुभव नहीं है कि मैं शुद्ध, बुद्ध, मुक्त हूँ, यह तो माना हुआ है । मायके वश होकर भूल गया है । अविनाशीका अनुभव हो जाय तो मरनेसे डरे क्यों ? चेतन क्या है ? हमलोग क्रियावालेको ही चेतन समझते है, लेकिन क्रिया तो जड़में ही होती है । चेतन नाम ज्ञान, जो अपने और दुसरोंको जानता है, समझता है । अमलका मतलब कोई मल नहीं, पर राग, द्वेष आदि दिखता है । सहज सुखराशी है पर सुख-दुःख, राजी-नाराजीका अनुभव होता है । ‘अहं ब्रह्मास्मि’ उपासना हो सकती है, अनुभव नहीं है । सच्चे ह्रदयसे कहेगा तो यही अनुभव होगा कि ईश्वर अंश सहज सुख्राशीका अनुभव नहीं है । अतः जिज्ञासा है तो जाननेकी चेष्टा करें, जाननेवाले पुरुषोंका संग करे, नहीं तो भगवानके भजनमें लग जाओ । ज्ञानमार्गमें जानो, सीखो नहीं । केवल कहना नहीं है, अनुभव होना चाहिए ।
तो इस वास्ते गीताजीमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और अनुभवनीष्ट महात्माकी आज्ञा पालनसे भी कल्याण हो जाता है — यह पाँच उपाय बताये है । अतः जिसको जो मार्ग ठीक लगे वह पकडो इन पाँचमेंसे और उसके अनुसार चलो । यदि उसकी प्राप्तिकी तेज इच्छा नहीं है तो समय लगेगा और जिस इच्छाके आगे संसारकी कोई इच्छा न हो, जीनेकी इच्छा भी न हो तो जल्दी ही कल्याण हो जायेगा ।
भक्तिमार्गमें विश्वासकी मुख्यता है ।प्रह्लादजीको जैसे कुम्हारके मिट्टीके घड़े पकानेके लिए आग लगानेके बाद बिल्लिके बच्चें जिन्दा निकलनेकी घटनासे भगवानमें दृढ विश्वास हो गया, ऐसे दृढ विश्वाससे भगवानकी प्राप्ति हो जाती है । गोरखपुरकी घटना है, एकबार मैंने सत्संगमें कहा कि यदि आपका दृढ निश्चय हो जाय कि भगवान् आज ही मिल सकते है तो आपको जरुर मिल सकते है । मै बाद में भिक्षा लेने गया तो सेवारामजी नामके एक सज्जनने कहा कि मेरेको भगवानकी दिव्य सुगन्धि तो आयी परन्तु दर्शन नहीं हुए । तो पूछने पर पता चला कि भगवान् इतनी जल्दी कैसे मिल जायेंगे ? यह संदेहकी वजहसे ही दर्शन नहीं हुए । भीतरमें संदेह होगा तो बाधा लगा देगा । आपके मनमें ऐसा हो कि भगवान जल्दी कैसे आ जायेंगे ? तो भगवान कैसे आवें ? यदि ऐसा संदेह्की रेख ही न हो तो भगवानको आना ही पड़ेगा ! भक्ति में विश्वास ही मुख्य है ।
आप कैसे ही सदाचारी, दुराचारी पापी हो, कैसे ही हो; पर आप निसंदेह हो कि भगवानको आना ही पड़ेगा तो जरुर मिलेंगे ! भगवानको आपके पाप रोक नहीं सकते ! यदि हमारे पाप भगवानको अटका दे तो भगवान् मिलकर भी क्या निहाल करेंगे ? आपका विश्वास पक्का होना चाहिए, प्रह्लादजीकी तरह ! श्रद्धा, विश्वास अंधा होता है, संदेह नहीं होता है । मनुष्यों पर विश्वास किया और जगह-जगह धोखा खानेसे भगवानमें भी विश्वास नहीं करता है । विश्वास होना कठिन है, यदि विश्वास हो जाय तो फिर परमात्मप्राप्तिमें देरी नहीं है ।

—दि॰५/६/१९९८ प्रातः ८.३० बजेके प्रवचनसे
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