।। श्रीहरिः ।।

करणनिरपेक्षसाधनमें विवेककी मुख्यता

हम साधन करते है उसके कई प्रकार है, उसमे दो प्रकार मुख्य है — (१) विवेकप्रधान (२) करणप्रधान । इस दो प्रकारके अंतर्गत सब साधन आ जाते हैं ।
विवेक नाम किसका है ? सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सार-असार आदि दोनोंको ठीक तरहसे जाननेका नाम विवेक है । करणप्रधानमें विवेक नहीं है, ऐसी बात नहीं है और विवेकप्रधानमें करण नहीं है, ऐसी बात भी नहीं है । मैं प्रधानताको लेकर कहता हूँ, रहितकी बात नहीं कहता हूँ । विवेकप्रधानमें विवेककी प्रधानता होगी और करणप्रधानमें करणकी प्रधानता होगी । विवेकके बिना तो कोई काम नहीं होगा । गृहस्थकार्य, व्यवहार भी नहीं होगा । विवेक तो पशुओंमें भी होता है । यदि मनुष्यमें विवेक न हो तो पशुपना, असुरपना, राक्षसपना है । विवेक के कारण ही मनुष्य कहलाता है ।
करणप्रधानमें मनको, बुद्धिको लगायेंगे; मन, बुद्धि द्वारा परमात्माका चिंतन करेंगे, दूसरी बातें मन, बुद्धिके द्वारा हटायेंगे । काम करनेसे होगा — यह सब करणप्रधान है । विवेकप्रधान क्या है ? यह संसारमें परिवार, धन, मकान, जमीन-जायदाद मिली हुई है और बिछुडनेवाली है । यह शरीरकी उम्र भी प्रतिक्षण खत्म हो रही है । मैं ५० वर्षका बड़ा हो गया — यह तो अविवेक है और ५० वर्ष तो मर ही गए, मौत उतनी नजदीक आ गई उतना तो पता है पर बाकी कितना है पता नहीं ? — यह विवेक बताता है, करण नहीं बता सकता । मन, बुद्धि, शरीर नहीं बता सकता, यदि मन, बुद्धि में विवेक लगेगा तो मन, बुद्धि भी बता देगी ।
विवेकप्रधानसाधनमें जडताका त्याग होगा । करणप्रधानसाधनमें समय बहुत लगेगा । ‘साधकतममं करणम्’ क्रियाकी सिद्धिमें जो खास आवश्यक हो, नितांत आवश्यक हो उसको करण कहते है । जैसे लिखनेमें कलम(पेन)की आवश्यकता होती है, पर उसमें भी विवेकके बिना काम नहीं चलेगा कि क्या लिखें, कैसे लिखें ? लेकिन विवेकप्रधानमें करणकी आवश्यकता नहीं है । सांसारिक कार्य तो करनेसे ही होगा, परन्तु परमात्मतत्व करने से नहीं मिलेगा । परमात्मतत्व करनेसे अतीत है । प्रकृतिमें क्रिया और पदार्थ है । करणप्रधानसाधनमें श्रवण करो, मनन करो, निदिध्यासन करो, ध्यान करो, समाधीमें भी सविकल्प, निर्विकल्प फिर सबीज और अंतमे जाकर निर्बीज समाधी करो — यह क्रम है । विवेकमें जडताका त्याग है । जितना भी मिला हुआ है उसका वियोग जरुर होगा । मिली हुईको संसारके काममें लगाओ, उदारतासे लगाओगे तो अन्तःकरण शुद्ध होगा, परमात्मप्राप्तिमें सहायता होगी ।
संग्रह करना और सुख भोगना यह महान पतन करनेवाला है, ऐसा व्यक्ति साधन कर ही नहीं सकता । नामजप करो, सत्संग करो, कीर्तन करो, स्वाध्याय करो, पुस्तक पढ़ो, परन्तु जहाँ प्रधानता करणकी होगी वहाँ करना प्रधान होगा और पदार्थ प्रधान रहेगा । इनके द्वारा होगा तो यह संसार में ही उलझेगा और अन्तमें उससे ऊपर उठनेके लिये उसे छोड़ना ही पड़ेगा । जैसे सविकल्प से निर्विकल्प और सबीजको छोडोगे तभी निर्विकल्प समाधीमें पहुँचेंगे और अन्तमें उसमे भी विवेक ही होगा । करणप्रधानमें भी अन्तमें विवेकके बिना तत्वकी प्राप्ति होगी नहीं और विवेक होनेपर करणकी जरुरत रहेगी नहीं । विवेक हो गया, असत् का त्याग कर दिया । व्यसन करनेमें तो चाय, बीडी, तम्बाकु, हाथ आदिकी जरुरत होगी परन्तु व्यसनका त्याग करनेमें किसकी जरुरत पड़ेगी ? विवेक त्याग करता है । संयोगका तो वियोग होगा ही अतः संयोगमें सेवा कर लो । माँ-बापकी सेवा कर लो, समाजमें अच्छे काम कर लो — इसमे करणकी प्रधानता होगी पर विवेक साथमें रहेगा तब अपना लोभ छुटेगा वरना पैसेका महत्व बढ़ जायेगा । वास्तवमें पैसेसे काम नहीं चलता पर पैसेके खर्चसे काम चलता है । पर लोभी आदमी समझ नहीं सकता, अक्लमें नहीं आती यह बात कि पैसा खर्चसे ही काम आता है । तो करणप्रधानमें सामग्रीकी प्रधानता रहेगी और विवेकमें त्यागकी प्रधानता रहेगी । पैसा आपको और दुसरोंको खर्च करनेसे ही काम आएगा; नहीं तो चोर, डाकूको लूटनेके काम आयेगा, वकीलको काम आएगा लड़ाई करोगे तो ! मुक्ति, कल्याणके काम नहीं आयेगा ।
विवेकप्रधानसाधनसे बहुत जल्दी उन्नति होती है । विवेक ही तत्वज्ञान, मुक्तिमें बदल जायेगा । संसारमें करनेकी धुन लगी हुई है कि सब काम करनेसे होता है, वही बात परमात्मप्राप्तिमें लगाते है कि करने से ही होगा । करनेसे संसारका काम होगा, परमात्मप्राप्ति नहीं होगी; सहायता ले सकते है । क्रिया से अतीतमें करण कैसे चलेगा ? उसमें तो विवेक ही काम आएगा ।
मनुष्य शरीरकी जो शास्त्रोमें महिमा आती है, वह विवेकके कारण ही है । गीतामें विवेककी प्रधानता होनेसे पुरे संसारमें सभी आदर करते है । विवेक बुद्धिका धर्म नहीं है, विवेक आता है, प्रकट होता है बुद्धिमें । करणोंमें विवेकका निषेध करोगे तो पशुता आ जायेगी और विवेक में करणका निषेध होगा तो कल्याण हो जायेगा । करणकी प्रधानतामें जडता रहेगी और विवेककी प्रधानतामें चेतनता रहेगी ।
आपका ‘होनापन’ किसी कारणसे सिद्ध नहीं होता है । आपका होनापन स्वयंसिद्ध है । सुषुप्तावस्थामें कोई करण नहीं है पर हमारी सत्ता रहती है, तभी तो जगने पर कहते है कि मैं सुखसे सोया ! आपकी सत्ता स्वयंसिद्ध है, उसमें कोई करणकी आवश्यकता नहीं है । मेरी बातको समझो और प्रश्न करो तो मुझे बहुत आनंद आता है ! विवेक काममें लेंगे तो लोक-परलोकमें कहीं अटकाव नहीं आयेगा । वेदांत, अद्वैत सिद्धांतमें सबसे पहले विवेक है और अंत में भी विवेक ही है ।
दि॰ ०१/०८/१९९१ प्रातः ५ बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
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