।। श्रीहरिः ।।

साधक कौन है ?

श्रोता — कर्तृत्व ही नहीं है, वह करता ही नहीं है फिर उसके लिए कार्य ही क्या है? उसके लिए करणकी भी क्या आवश्यकता है; पर महाराजजी यह किस स्थितिकी बात है ?
स्वामीजी — जबसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिकी इच्छा होती है, तबसे ही यह बात समझ लेनी चाहिये कि परमात्मतत्त्वमें कर्तृत्व नहीं है और करणकी अपेक्षा नहीं है । यह बात पहलेसे ही मान लेनी चाहिए तो उद्देश्य करणनिरपेक्षताका हो जायेगा । करणकी सहायता लेते हुए साधन करते है तो भी उसके ध्यानमें यह आ जायेगी कि वास्तवमें तत्त्व करणनिरपेक्ष है और करणनिरपेक्ष तत्वका साधन भी करणनिरपेक्ष ही है । जबतक असाधन साथमें रहता है तबतक करणसापेक्षता साथमें दिखती है । परमात्मतत्वमें करणकी अपेक्षा नहीं है । ‘निर्द्वन्द्वो ही महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’; जबतक सत्-असत् का, साधन-असाधनका द्वंद्व रहता तबतक करणकी अपेक्षा रहती है, निर्द्वन्द्व होने पर करण नहीं रहता । अतः वास्तवमें असधानमें ही करणकी अपेक्षा रहती है । मानो उद्देश्य निष्काम भावका होनेसे सर्वथा निष्काम उनके(स्वयं) होनेसे होता है । इस वास्ते लोकमान्य तिलकजी महाराजने कर्मयोग सिद्धपुरुषके द्वारा ही होता है — यह माना है । जबतक सर्वथा कर्मसे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता है; पूर्णता नहीं होती; तबतक निष्कामभावका उद्देश्य रहता है, निष्कामभाव पूरा नहीं रहता परन्तु ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ । इसमें यह बात आयी है कि निष्कामभावसे जितना भी अनुष्ठान हो गया उसका फल परमात्मप्राप्ति ही होगी, दूसरा नहीं होगा । क्रिया जीतनी भी है, प्रकृतिमें होती है तो प्रकृतिसे अतीत होनेका पहले उद्देश्य होता है । अतः उद्देश्यमें करणसापेक्षता नहीं रहती पहलेसे ही ! उद्देश्यको ठीक समझ ले तो उसका साधन बढ़िया होगा । नहीं तो कभी सकाम, कभी निष्काम, कभी धन, मान, बड़ाईका उद्देश्य — यह साथमें बनते रहेंगे ।उद्देश्य सांसारिक न रहनेसे ही वह साधक होता है, वरना वह साधक नहीं है । आंशिक साधन तो सबमें रहता है, परमात्माका अंश होनेसे । आज साधन करते है, सत्संग करते है फिर भी उन्नति नहीं होती, कारण क्या है ? साथमें असाधन रहता है ! मानो जूठ-कपट भी कर ले, बेईमानी भी कर ले, ठगी, धोखेबाजी भी कर ले धनके लिए ! और मनमें यह रहता है कि हम बाबाजी थोड़े ही है ! हम तो गृहस्थ है !! हमारे तो यह करना ही पडता है, हमारे तो जरुरी है; तो जबतक यह जरुरी रहता है तबतक वह साधक नहीं होता, सांसारिक आदमी है; भले ही अपने को साधक मान लें ! सत्संग करते है अच्छी बात है, फायदेकी बात है, परन्तु साधक नहीं है । साधक तो वह है, जिसका साधन ही उद्देश्य है । असाधन हो जाय तो चिंता, दुःख होता है, भीतर में जलन होगी । अतः एक-दो बार असाधन हो जाय पर आगे नहीं होगा । उसका उद्देश्य पारमार्थिक है, वह विधिरुपसे कैसे कर सकता है कि जूठ-कपट करना पडता है, हम गृहस्थ है !! तो गृहस्थकी ही मुख्यता रहती है । साधन करते हुए और व्यवहार करते हुए भी संसारकी मुख्यता रहेगी । और साधन करने में तत्पर हो जाने पर मुख्यता साधककी ही रहती है । साधकके उद्देश्यमें साधकपना अखंड रहेगा, मैं साधक हूँ, मैं ऐसे कैसे कर सकता हूँ । सत्संग होने पर असत् का संग रहना नहीं चाहिए, नहीं तो तबतक सत् कर्म है,सत् चिंतन है,सत् चर्चा है !
करणसापेक्षता रहेगी तबतक कर्तृत्व रहेगा और कर्तृत्व रहेगा तबतक भोक्तृत्व रहेगा ही । कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही तो संसार है । परमात्मप्राप्ति न गृहस्थको होती है, न साधुको होती है; परमात्मप्राप्ति तो साधक को ही होती है ।साधक न गृहस्थ होता है, न साधु होता है । उसमें न गृहस्थपनेका अभिमान होता है, न साधुपनेका अभिमान होता है ! इसपर सोचो, विचार करो ! नहीं तो तबतक सत्संग एक शुभकर्म है, शुभकर्मसे लाभ है; पर अपनी मुक्ति चाहता है, वह बात कहाँ है ? जैसे एक धन कमानेवाला होता है और एक बेफिक्र होता है कि कभी नुकशान हो जाय,खर्च भी कर दे कभी । तो वह असली लोभी नहीं है ।असली लोभी होगा तो थोडा चल लेगा पर चार पैसे खर्च नहीं करेगा । वह कठिनता सह लेगा पर पैसा खर्च नहीं करेगा ! ऐसे ही साधनका लोभी हो वह असाधन कैसे करेगा ? विचार करते है तो मालूम पडता है कि करणसापेक्ष साधक होता ही नहीं ! तो साधक मात्र करणनिरपेक्ष होता है । प्रायः साधक मन-बुद्धिकी आवश्यकता समझते है और मन-बुद्धिके द्वारा ही साधन करते है । आवश्यकता जडकी समझेंगे तो जडताका त्याग कैसे करेंगे ? उनको करणनिरपेक्षता समझमें आती ही नहीं ! उनको साधनमें सहायक मानता है फिर उनसे सम्बन्ध विच्छेद कैसे होगा ? यह तब होगा कि जब प्रकृतिका सम्बन्ध किसी भी तरह से किन्चित् मात्र भी बाधक है, ऐसा समझने पर ही यह करणनिरपेक्षताकी बात समझमें आएगी । जैसे रथके आगे घोड़े जाते है, घोड़े के आगे लगाम जाती है, उसके आगे सारथी जाता है और महलमें तो रथी स्वयं ही जाता है, क्रम है यह ! इस तरहकी करणनिरपेक्षताकी बात शास्त्रोमें भी विस्तार से आयी है । इसलिए साधक पहलेसे ही उद्देश्य करणनिरपेक्षताका रखें ।
नारायण..... नारायण......... नारायण........... नारायण.............. नारायण
—दि॰१६/०१/१९९१ प्रातः ५ बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
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