।। श्रीहरिः ।।

मेरा कौन है ?


मनुष्यके लिए खास सोचनेकी बात है की मेरा कौन है ? ‘संसार साथी सब स्वार्थके है’ । अपने पास कुछ शक्ति है, कुछ द्रव्य है, कुछ बल, अधिकार, बुद्धिमानी, योग्यता है; उसको चाहते है, आपको नहीं चाहते है । आप भी संसारके पास विद्या, योग्यता,कलादि है, उसको चाहते हो, संसारको नहीं चाहते हो ! तो संसारमें अपना कोई नहीं है, सब मतलबके है । अपना मतलब सिद्ध करना चाहते है । आप संसारसे अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हो और संसार आपसे मतलब सिद्ध करना चाहता है । तो दो ठगोंसे ठगाई नहीं होती है, है दोनों ही ठग !
वास्तवमें संसारकी जो ईच्छा है, आपसे जो चाहना है; अपनी शक्ति मुताबित पूरी करो और संसारसे चाहना मत रखो । यह उपाय उद्धार करनेवाला है, अपने कल्याणका उपाय है । यह आपको एकदम विपरीत दिखेगा परंतु वास्तवमें यही उपाय है । संसारको अपना मानो और संसारसे आशा रखो, तब तक कल्याण नहीं होगा । परमात्माको अपना मान सकते नहीं ! अपने सुख-सुविधा, आदर,मान चाहते है तब तक परमात्मा अपने नहीं दिखेंगे ! बातें कह लेंगे परमात्माकी, सुन भी लेंगे, पढ़ लेंगे पर अपना सुख,आराम चाहते है तब तक भगवानमें मन नहीं लगेगा । हम परमात्माके ग्राहक ही नहीं है, हम ग्राहक मान, आदर, सुख-सुविधाके है । हम चाहते नहीं तब तक परमात्मा कैसे मिलेंगे ? संसारतो स्वार्थी है, अपनेसे जीतना हो सके उतना संसारका स्वार्थ पूरा करो । अपनी शक्ति अनुसार सेवा करो, अपनी सुख-सुविधा मत देखो ।
भगवानमें मन तभी लगेगा जब अपना संसारमें कोई है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं ! कोई संसारमें अपना हो सकता ही नहीं ! हमें सुख-सुविधा, आराम दे सके, वह खुद सुख-सुविधाका भूखा है, आरामका भूखा है, मानका भूखा है, आदरका भूखा है तो आपको सुख-सुविधा, मान कैसे देगा ? वे आपको कुछ नहीं दे सकते । धोखा होगा धोखा ! ‘सुर नर मुनि सबकी यह रीति ,स्वार्थ लाग ही करही सब प्रीति’ । ‘स्वार्थमित सकल जग माँही, सपने हूँ प्रभु परमारथ नाहीं’ । जहाँ जाते है, वहाँ अपना स्वार्थ देखते है । अपनी सुविधा-आराम देखते है । अपना मान,सत्कार चाहते है, अपनी महिमा चाहते है । यह संसारसे मिलता तो है थोड़ा और धोखा ज्यादा होता है । बात ऐसी विलक्षण है कि हमारेसे मान चाहनेवाला हमारा कल्याण नहीं कर सकता ।
हमें आराम, सुख-सुविधा देना है, लेना नहीं । दूसरोंकी सेवा करना और भगवानको याद करना — यह दो काम खास है मनुष्यके ! यह दो बात न हो तो वह मनुष्य कहलाने लायक नहीं है, पशु-पक्षीकी तरह ही है । हम मान, आदर चाहते है और मिलता नहीं है तो व्यक्ति खराब लगता है । तो वह व्यक्ति खराब हो गया क्या ? किसीको तो आदर देता होगा ! यह कसौटी नहीं है, हमारा आदर न करे वह आदमी खराब ! बिल्कुल गलत बात है यह । बिना मतलब आदर तो भगवान और भक्त, महात्मा लोग करते है । पर जब तक हमारे आदरकी भूख है, तब तक यह बात समज नहीं सकते ! ‘हेतु रहित जग उपकारी, तुम तुम्हार सेवक असुरारि’ । यह दिखेगा नहीं, समजमें नहीं आएगा, जबतक हम अपने मतलबकी बात सोचते रहेंगे । भगवानने हमारेको दुःख दे दिया, भगवानने यह कर दिया, संत-महात्माने यह कर दिया —ऐसा दिखेगा ! वास्तवमें अवगुण अपना है, संसारकी चीज चाहते है । परमात्माको चाहते तो संसारकी चाहना नहीं रहती । ‘कबीर मनवा एक है भावे तहाँ लगाय, भावे हरीकी भक्ति कर भावे विषय कमाय’ । परमात्माकी इच्छा जाग्रत होनेपर संसारकी इच्छा बुरी लगेगी । अनुकूलता, मान, बड़ाई अच्छी न लगे तब परमात्मामें प्रेम होगा । पदार्थोसे, व्यक्तियोंसे सुखकी चाहना बड़ी गलत बात है । परमत्माको चाहते हो तो निरादर, दुःख, प्रतिकूलतामें प्रसन्नता होनी चाहिए, आनंद आना चाहिए ! बात ऐसी है चाहे अपनी समज में आवे या नहीं आवें ! संतोंसे सुना है; बीमार हो गए, कोई पानी पिलानेवाला न हो, आनंद आता है । सेवा करनेवाले मिलते है तो अच्छे नहीं लगते है । यह बात हरेक की समजमें नहीं आयेगी, पर बात ऐसी है । जो ईश्वरका ग्राहक होता है उसको जगतकी सुविधा अच्छी नहीं लगती है और जब तक सुख-सुविधा अच्छी लगती है तो परमात्माका ग्राहक कहाँ है ? यह ज्ञान, विवेक सत्संगसे मिलता है ,वह संसारसे हटाने के लिए है और विश्वास है वह भगवानमें लगानेके लिए है । संसारका विश्वास पतन करनेके लिए है । बड़े-बड़े धनी, मिनीस्टरोंकों देख लो, वे खुद खाऊँ-खाऊँ करते है, वह आपको क्या निहाल करेंगे ! नहीं कर सकते । जो हमारी कोई गरज, आवश्यकता ही नहीं मानता है वह हमारा कल्याण कर सकता है । आप मेरा कहना मानो यह मेरे हाथकी बात है क्या ? आपका कहना मैं मान लूँ , यह मेरे हाथकी बात है । तो सुख लेना हमारे हाथकी बात नहीं है अपितु सुख देना हमारे हाथ की बात है । तो हाथकी बात है वह उद्धार, कल्याणकी बात है और जो हाथ की बात नहीं है वह पतनकी बात है । इस वास्ते हमारेको संसारसे कुछ लेना नहीं है । खुद ही दरिद्री है वह हमारेको क्या देगा ? लखपति, करोड़पति, अरबपतिको देखो, उनको घाटा ज्यादा है । क्या आपको मालूम नहीं है की उनको अभाव नहीं है ? करोड़ों रुपये है उनको रूपयोंकी चाहना नहीं है ? ज्यादा है, जीतना धन अधिक है उतनी उनको रूपयोंकी भूख ज्यादा है ।
परमात्माकी तरफ चलना हो तो संसारका सुख अच्छा नहीं लगना चाहिए । पहली सिढीको छोड़ोगे तभी दूसरी, तीसरी पर जाओगे ! वह छोडेगें नहीं तो कैसे चढ़ेगें ? तो संसारका सुख छोड़नेका है, भोगनेका नहीं है , तभी ऊँचे उठेगें । संसारके लोग आदर करते है तो कोई भगवद् संबंधी बात है हमारे में, वह हमारा आदर नहीं है ! हमारा आदर केवल भगवान् ही कर सकते है, जिसको कोई गरज नहीं हो वह हमारा आदर कर सकता है । अभी तकका इतिहास देख लो की संसारसे कोई भी तृप्त हो गया ? जो चीज जिसके पास अधिक है ,उसको उसकी भूख अधिक है । धन अधिक है, उनको रूपयोंकी भूख अधिक है । जिनके पास रुपये नहीं है उनको १०, २०,१०० रुपये मिल जायेगें तो मानेगें कि बहुत मिल गया ! धनी आदमीकी भूख उनसे बड़ी होती है । यह तो आप भी देखते हो, जानते हो; सच्ची बात है ।
संसारमें तो निर्वाह करना है । संग्रह और सुख की इच्छाका त्याग करो । संग्रह और सुखका त्याग नहीं कहता हूँ, पर उसकी इच्छाका त्याग करो ! यह पतन करनेवाली है । ज्ञानपूर्वक संसारका त्याग होता है और विश्वासपूर्वक भगवानमें प्रेम होता है । भगवान् हमारे है, ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो ना कोई’ । संसारके हम कर्जदार है तो कर्जा चुका दो, ठीक हो जाएगा । संसार तो चीज ही चाहता है, आपको कोई नहीं चाहता है । इस वास्ते संसारकी चाहना छोड़ो । अपने परिवारमें सबको सुख पहुँचाओ । सुख तो परमात्मासे भी नहीं चाहना है । वस्तुयें संसारकी है तो संसारको दे दो, और स्वयं भगवानके हो तो भगवानको दे दिया । मैं तो भगवानका हूँ । संसारमें केवल मनुष्योमें ही सेवा करनेकी ताकत है । पत्निको बूढ़ा पति सुहाता नहीं है, घर से निकाल दिया ! आपसे कोई चाहना रखता है वह ज्यादा अच्छा लगता है कि कुछ नहीं चाहता है वह अच्छा लगता है ? त्यागीको सब चाहते है, तो त्यागी हो जाओ । चाहना न रखनेवालेका निर्वाह बढ़िया होता है ।

दि. १५/०१/१९९४, प्रातः ५ बजेके प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे

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