।। श्रीहरिः ।।

अपने अनुभवका आदर करो


पुरुषमें यह जो कर्तापन, भोक्तापन है वह प्रकृतिके संबंधसे है । अगर प्रकृतिका संबंध न हो तो स्वयंमें कर्तापन, भोक्तपन नहीं है । आप कभी सुखी होते हो, कभी दुःखी होते हो, इस पर आप थोड़ा गहरा विचार करो और समझमें न आवे तो शंका करो ! सुखी और दुःखी होते हो तो सुख भी आपके साथ नहीं रहता है और दुःख भी आपके साथ नहीं रहता है । अगर सुख आपके साथ रहता तो दुःखी नहीं होते और दुःख आपके साथ रहता तो आप सुखी नहीं होते ! तो आप सुखी-दुःखी होते हो और सुख-दुःख मिटते है और आप रहते है । इस बात पर ध्यान देनेसे प्रत्यक्ष बात है कि आप उनसे अलग हो । सुख और दुःख आते है और जाते है और आप रहते हो ! —इस अनुभवका आदर करो, इसमें कोई शंका हो तो पूछो ! तत्त्वज्ञान, जीवनमुक्ति, परमात्मतत्वकी प्राप्ति कहते है, बहुत सुगम है । बड़ी सरल है । कितनी विलक्षण बात है की सुख-दुःख आते जाते रहते है और आप आते-जाते नहीं हो ! रहते हो ! प्रकृतिमें स्थित होनेसे सुखी-दुःखी होते हो । प्रकृति और पुरुष दो है । प्रकृति जड़ है, आप चेतन हो । प्रकृति द्रश्य है, परिवर्तनशील है और आप द्रष्टा एवं अपरिवर्तनशील हो । सुख-दुःख बदलनेवाले है, रहते नहीं है पर आप अपनेको सुखी-दुःखी मान लेते हो !
अनुकूल परिस्थिति आनेसे मैं सुखी हो गया और प्रतिकूल परिस्थिति आनेसे मैं दुःखी हो गया ! आप सुखी-दुःखी नहीं होते हो ! आपके सामने सुख-दुःख आता है और जाता है । तो आज आपको यह बात मान लेनी चाहिए की सुख-दुःख आने-जानेवाले है, उनके साथ मिलो मत ! ‘समदुःखःसुखः स्वस्थः’ । ‘स्व’ में स्थित होना है, प्रकृतिमें स्थित होनेमें तो महेनत होगी, ‘स्व’में स्थित होने में क्या महेनत होगी ? आप स्वयं स्थित हो । ‘मैं हूँ’ इस सत्तामें सुख-दुःख आनेसे क्या फर्क पड़ा ? अपने होनापन में ! कोई शास्त्रोंकी गहरी बात नहीं कहता हूँ, अपनी सीधी सादी बात कहता हूँ । ‘स्व’में स्थित होनेमें आदमीको कुछ नहीं करना पड़ता, कहीं जाना नहीं पड़ता, कोई उद्योग, परिश्रम नहीं करना पड़ता ! ‘स्व’में स्थित हो स्वतः ! सत्ताका अनुभव करो ! ‘आप हो’ इसका पता नहीं है तो किसका पता है बताओ ? ‘मै हूँ’, ‘स्व’का पता निरंतर रहता है ! थोड़ा ध्यानपूर्वक सुनो ! सुख-दुःख आगंतुक है, क्या आप आगंतुक हो कि कभी रहते हो और कभी नहीं रहते हो ? बताओ ? यही तो अनुभव है ! अनुभव कोई जानवर होता है ?
देखो भाई ! मनुष्यमें विचारकी प्रधानता है । और विचारकी बात नहीं मानोगे तो क्या मानोगे ? बताओ ? विवेक और विचार ही मनुष्यता है, इसके बिना तो पशुता है, मनुष्यता है ही नहीं ! पशुता कहता हूँ तो पशुका निरादर होता है ! बोलो कोई प्रश्न करो ? प्रश्न तो यह होना चाहिए कि हम तो रहनेवाले है और आने-जानेवालेके साथ कैसे रहे ? कैसे पकड़ सकें ? उसके साथ हो नहीं सकते आप ! मेरी बातमें कोइ शंका हो तो बताओ आप ? अनुभव क्यों नहीं होता है क्योंकि आप सीखि हुई बात बोलते हो ! अनुभवका आदर नहीं करनेसे सीखि हुई कहता हूँ ! इसी क्षण मान लो, स्वीकार कर लो ! इसमें कोई अभ्यास नहीं है । समय नहीं लगता है । समय तो निर्माण करनेमें लगता है । जो है वैसा स्वीकार करनेमें क्या समय लगे ? अभ्याससे तत्व नहीं मिलता है । बड़ी पक्की बात कहता हूँ ! भले दुनिया मात्र कह दे कि अभ्याससे होता है !! अभ्याससे एक नई अवस्था बन जाएगी, तत्त्व कैसे मिलेगा ? अभ्यास तो इन्द्रियोंसे, मन, बुद्धिसे होगा । अभ्यास प्रकृतिके अंतर्गत होगा, अभ्यास करनेमें परतंत्रता होगी ! प्रकृतिसे अतीतमें अभ्यास क्या करेगा ? सुख-दुःखके भोगी होनेसे आदर नहीं होता है । और आप सुख-दुःखके भोगी कैसे होंगे ? सुख-दुःखके भोगी भी होते हो और अलग भी कहते हो ? इसीलिए तो आपको सीखि हुई कहता हूँ ! क्या नींदमें कहता हूँ ऐसा आपको !! सुख-दुःखके भोगी हो जाते और सुख-दुःखमें समान है; तभी तो सीखि हुई कहता हूँ, भोगी कहता हूँ ! सीखि हुई बात कहनेमें नाराज होते हो, अपना अपमान समझते हो !
अनुभवका आदर करो, उसमें स्थित रहो । आप स्थित रहते नहीं कि स्थित रह सकते नहीं ? अपनी भूलको भूल स्वीकार करते ही भूल मिट जाएगी ! अंधेरेको दीपक लेकर देखने जाओगे तो अंधेरा टिकेगा क्या ? जानोगे तो भूल कैसे रहेगी ! और भूल रहेगी तो जानोगे कैसे ? बिल्कुल विरोधी बात है । मूर्खको कुटना (मारना) सोरा (आसान) है पर समझाना कठिन है । कृपानाथ आप कृपा करो ! आप जो समझते हो उसका आदर करो, उसमें आरूढ़ (स्थित) रहो, उसको महत्व दो ! नहीं तो आप ठंडमें यहाँ क्यों आए हो ? क्या धन मिलता है ? विचारसे ठीक समझमें आता है उसपर कायम रहना है की बेविचार पर ? और यह कब करना है बोलो ? किस दिन पर छोड़ रखा है ? बेटा–पोता हो जाएगा तब करोगे ? माँ-बाप मर जायेंगे तब करोगे बोलो ? तो आप मान लो बात को ! मैं बहुत राजी हो जाऊँगा । इतना राजी तो भिक्षा देंगे उससे भी नहीं होऊँगा !
नारायण......... नारायण................... नारायण..................... नारायण
सुनीये—
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