।। श्रीहरिः ।।


क्रोधनाशका उपाय -२



(गत ब्लोगसे आगेका )
‘मेरेमें क्रोध है’ इस बातको कृपा करके छोड़ दो । भूतकालकी घटनासे अपनेको क्रोधी मान लेना —यह बड़ा अनर्थ है । क्रोध असाधन है, क्रोध विघ्नदायक है । क्रोध जब आ जाता है तब आदमीका विवेक नष्ट हो जाता है । क्रोध आते ही ‘क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः’ (गीता२/६३) । आपकी स्मृति नष्ट हो जाती है । मैं भगवानका हूँ, भगवानका भजन करता हूँ, मैं सत्संगी हूँ, मैं साधक हूँ —यह भूल जाता है । जिसके लिए मनुष्य जन्म मिला है और भजन–ध्यान करके परमात्मप्राप्ति चाहते है; उसको ही भूल गए तो कितना नुकसान हुआ ! ‘सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः’ गीताजी कहती है, बड़ी सच्ची बात है । दो बात हुई (१) हमारेमें क्रोध नहीं है और (२) क्रोधसे नुकसान होता है, इस वास्ते क्रोध हमें नहीं करना है ।
यह जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, विषमता आदि जितने दोष है; उनकी सत्ता नहीं है । मानो नित्य नहीं है, आगंतुक है । उनके स्वरुप पर विचार करो । उनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है —यह तीसरी बात याद कर लो । हमारेमें क्रोध कैसे नहीं है ? तो देखो सबके प्रति क्रोध होता है ? सब समयमें क्रोध होता है ? हरदम रहता है ? क्या क्रोधके सिवाय मेरेमें कुछ नहीं है ? सर्वथा आप क्रोधी हो ? अतः क्रोधकी सत्ता नहीं है । देखो ! मेरी बातें है, वह मुझे बड़े अच्छे संत-महात्माओंसे मिली है । उससे आपको जरुर लाभ होगा, पक्की बात कहता हूँ । आप करके देखो !
क्रोध आपमें और किसीमें भी नहीं है क्योंकि जहाँ जीवके स्वरुपके वर्णनमें कहा है ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुखराशी’ । अपना विनाश नहीं होता तभी तो दोषोंको दूर करना है । ‘अमल’ —कोई दोष आपमें नहीं है । गोस्वामीजीकी वाणी पर विश्वास करो । भगवानकी वाणी ‘ममैवांशो जीवलोके’, बाप में होता हो तो बेटे में आवें ! ईश्वरमें यह दोष नहीं है । ‘क्रोधोऽपी शत्रु प्रथमः नराणाम् देहस्थितो देहविनाशनाय’ । क्रोधसे नुकसान, हानि होती है, आपको और दूसरों को भी । ‘नमोस्तुते क्रोधदेवाय स्वाश्रय ज्वालिने विषम’, क्रोधदेव आपको नमस्कार है । आप जहाँ आते हो, पहले अपने स्थानको जला देते हो । कितना कृतघ्न है । दुसरोंको तो बादमें जलावें, पहले आपको जलाता है । ‘जिस हांड़ीमें खावे उसीको फोड़े’ मारवाड़ी कहावत है । ऐसा दुष्ट है । जिस काष्ठ(लकड़ी)में अग्नि आवें, उसीको जला देती है । इस वास्ते इस क्रोधको छोडना है भाई ! पहले अपनेको फिर दुसरोंको जलावें आगकी तरह । क्रोधसे खून जल जाता है, नुकसान होता है ।
देखो एक और बढ़िया बात बताता हूँ । क्रोध आवें तो समझो कि यह हमारेमें तो है नहीं, कहाँसे आ गया ? तो हमारेको विपरीत बात होते ही कोई क्रोधका संस्कार पड़ा था, वह निकल गया । आया नहीं है, मन-बुद्धिमें संस्कार पड़ा था, वह निकल गया । आया हुआ मत मानो, निकल गया । जैसे गन्दी नालीको साफ करते है तो दुर्गन्ध आती है, यह वास्तवमें दुर्गन्ध आती नहीं है अपितु जा रही है सफाई से ।
साधन करनेवाले सज्जनोंको पुछता हूँ कि आपको पहले जैसा क्रोध आता है ? कम हुआ है न ? अतः क्रोध जा रहा है । (१) पहले क्रोध जल्दी-जल्दी, बार-बार आता था । अब उतना जल्दी नहीं आता है, देरी से आता है (२) पहले जितना जोरसे भभका आता था, उतना जोरसे अब नहीं आता (३) पहले जितनी देर ठहरता था, अब उतनी देर नहीं ठहरता है । यह तीन बातका अनुभव सबको होना ही चाहिए । अगर नहीं होता है तो साधन नहीं करते है । इससे सिद्ध हुआ कि क्रोध आता नहीं, जा रहा है । कभी-कभी साधन करनेवालेको बड़ा जोरसे क्रोध आता है, पहले से भी । यह मेरे अनुभवकी बात है । एक बार मैं कुएँसे पानी ले रहा था तो एक व्यक्तिने मेरा जल-छाना फेंक दिया तो मेरेको बडा क्रोध आया । मैंने निगाह करी कि मेरेको क्रोध आया उतना उसको नहीं आया । तो ऐसा क्यों हुआ ? कई दिन हमारे विपरीत होने पर, कई दिनका संग्रह हुआ गुस्सा एक साथ निकल गया ।
वर्तमानमें सब-के-सब निर्दोष है । यदि आपमें होता तो अभी होना चाहिए । अभी तो काम, क्रोध, लोभ नहीं है । आप स्वयं निमंत्रण देते हो तब आता है, सम्मति देते हो । आज ही विचार करो, आज ही फर्क पड जायेगा —ऐसी मेरी भावना है । आप नित्य है, क्रोध अनित्य है । नित्य-अनित्यका साथ कैसे हो सकता है ? भजन-सत्संग करनेवालोमें एक भयंकर दोष होता है कि यह सत्संगी नहीं है, मैं सत्संगी हूँ । दुसरेको मूर्ख समझता है । अच्छाईका अभिमान बुराईकी जड है । सभी दोष अहंकारकी छायामें आते है, रहते है । अभिमान कुसंग है । आप बहुत सावधान रहो । ‘सकल शोकदायक अभिमाना’, इसलिए नम्र होना चाहिए । साधककी रोजाना परीक्षा होती है, क्रोध आया तो फ़ैल हो गए । मुक्ति चाहते हो और यह क्रोध तो नरकोंका दरवाजा है । कोई अनुचित करें उसपर दया आनी चाहिए, क्रोध नहीं क्योंकि वह अपना अहित कर रहा है । प्रार्थना करो- हे नाथ ! हे प्रभु ! यह कैसे निर्मल हो जाय । यह बड़ी भारी सेवा है ।
जब कभी क्रोध आवें तो ‘आगमापायिनोऽनित्याः’, आनेजनेवाला और अनित्य है, मन ही मन कहो । जैसे बिच्छुका जहर मन्त्रसे उतर जाता है, ऐसे ही यह मन्त्र है । अच्छाईका अभिमान बुराईकी जड है —यह याद रखो । निर्दोषताके अभिमानसे दोष पुष्ट होते है । बडप्पनका गुण दुसरोंका दिया हुआ है, यदि सभी करोड़पति होते तो आपको लखपतिका अभिमान होता ? तो हमें उनके अहसानमंद होना चाहिए ।
श्रोता —लड़का कहना नहीं माने, चोरी करें तो गुस्सा करना चाहिए ?
स्वामीजी —हम उसका भला चाहते है । यह दया, प्रेम, अपनापन है । गुण है, दोष नहीं है । अतः क्रोध, गुस्सा दिखाना चाहिए, पर अपनेमें आना नहीं चाहिए, आना गलत है ।

दि। ४/०२/१९९६, सायं ३ बजेके

स्वामीजीके जीवनके अनुभव सुनिए इस प्रवचनमें -(१) २२.३५ मिनट पर जल-छानेकी घटना (२) ३९ मिनट पर चिदंबरम यात्रा की घटना (३) ४८.१७ असमकी घटना


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