।। श्रीहरिः ।।

अमरताका अनुभव—१



मनुष्यमात्रके भीतर स्वाभाविक ही एक ज्ञान अर्थात् विवेक है । साधकका काम उस विवेकको महत्त्व देना है । वह विवेक पैदा नहीं होता । अगर वह पैदा होता तो नष्ट भी हो जाता; क्योंकि पैदा होनेवाली हरेक चीज नष्ट होनेवाली होती है—यह नियम है । अतः विवेककी उत्पत्ति नहीं होती, प्रत्युत जागृति होती है । जब साधक अपने भीतर उस स्वतःसिद्धि विवेकको महत्त्व देता है, तब वह विवेक जाग्रत हो जाता है । इसीको तत्त्वज्ञान अथवा बोध कहा जाता है ।


मनुष्यतामात्रके भीतर स्वतः यह भाव रहता है कि मैं बना रहूँ, कभी मरूँ नहीं । वह अमर रहना चाहता है । अमरताकी इस इच्छासे सिद्ध होता है कि वास्तवमें वह अमर है । अगर वह अमर न होता तो उसमें अमरताकी इच्छा भी नहीं होती । जैसे, भूख और प्यास लगती है तो इससे सिद्ध होता है कि ऐसी वस्तु (अन्न और जल) है, जिससे वह भूख-प्यास बुझ जाय । अगर अन्न-जल न होता तो भूख-प्यास भी नहीं लगती । अतः अमरता स्वतःसिद्ध है । यहाँ शंका होती है कि जो अमर है, उसमें अमरताकी इच्छा क्यों होती है ? इसका समाधान है कि अमर होते हुए भी जब उसने अपने विवेकका तिरस्कार करके मरणधर्मा शरीरके साथ अपनेको एक मान लिया अर्थात् ‘शरीर ही मैं हूँ’—ऐसा मान लिया, तब उसमें अमरताकी इच्छा और मृत्युका भय पैदा हो गया ।


मनुष्यमात्रको इस बातका विवेक है कि यह शरीर (स्थूल, सूक्ष्म तथा कारणशरीर) मेरा असली स्वरूप नहीं है । शरीर प्रत्यक्ष रूपसे बदलता है । बाल्यावस्थामें जैसा शरीर था, वैसा आज नहीं है और आज जैसा शरीर है, वैसा आगे नहीं रहेगा । परन्तु मैं वही हूँ अर्थात् बाल्यवस्थामें जो मैं था, वही मैं आज हूँ और आगे भी रहूँगा । अतः मैं शरीरसे अलग हूँ और शरीर मेरेसे अलग है अर्थात् मैं शरीर नहीं हूँ—यह सबके अनुभवकी बात है । फिर भी अपनेको शरीरसे अलग न मानकर शरीरके साथ एक मान लेना अपने विवेकका निरादर है अपमान है, तिरस्कार है । साधकको अपने इस विवेकको महत्त्व देना है कि मैं तो निरन्तर रहने वाला हूँ और शरीर मरनेवाला है । ऐसा कोई क्षण नहीं है, जिसमें शरीर मरता न हो । मरनेके प्रवाहको ही जीना कहते हैं । वह प्रवाह प्रकट हो जाय तो उसको जन्मना कह देते हैं और अदृश्य हो जाय तो उसको मरना कह देते हैं । तात्पर्य है कि जो हरदम बदलता है, उसीका नाम जन्म है, उसीका नाम स्थिति है और उसीका नाम मृत्यु है । बाल्यवस्था मर जाती है तो वृद्धावस्था पैदा हो जाती है । इस तरह प्रतिक्षण पैदा होने और मरनेको ही जीना (स्थिति) कहते हैं । पैदा होने और मरनेका यह क्रम सूक्ष्म रीतिसे निरन्तर चलता रहता है । परन्तु हम स्वयं निरन्तर ज्यों-के-त्यों रहते हैं । अवस्थाओंमें परिवर्तन होता है, पर हमारे स्वरूपमें कभी किंचन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता । अतः शरीरतो निरन्तर मृत्युमें रहता है और मैं निरन्तर अमरतामें रहता हूँ—इस विवेकको महत्त्व देना है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)