।। श्रीहरिः ।।


अमरताका अनुभव—२


गीतामें आया है—
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
(गीता २/२२)

‘मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।’
जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़नेसे हम मर नहीं जाते और नये कपड़े धारण करनेसे हम पैदा नहीं हो जाते ऐसे ही पुराने शरीरको छोड़नेसे हम मर नहीं जाते और नया शरीर धारण करनेसे हम पैदा नहीं हो जाते । तात्पर्य है कि शरीर मरता है, हम नहीं मरते । अगर हम मर जायँ तो फिर पुण्य-पापका फल कौन भोगेगा ? अन्य योनियों में कौन जायगा ? बन्धन किसका होगा ? मुक्ति किसकी होगी ?शरीर नाशवान् है, इसको कोई रख सकता ही नहीं और हमारा स्वरूप अविनाशी है, इसको कोई मार सकता ही नहीं—
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।
(गीता २/१७)
अविनाशी सदा अविनाशी ही रहेगा और विनाशी सदा विनाशी ही रहेगा । जो विनाशी है, वह हमारा स्वरूप नहीं है । हमने कुर्ता पहन लिया तो क्या कुर्ता हमारा स्वरूप हो गया ? हमने चादर ओढ़ ली तो क्या चादर हमारा स्वरूप हो गयी ? जैसे हम कपड़ोंसे अलग हैं ऐसे ही हम इन शरीरोंसे भी अलग हैं । इसलिए हमारे मनमें निरन्तर स्वतः यह बात रहनी चाहिये कि मैं मरनेवाला नहीं हूँ, मैं तो अमर हूँ । ‘अमर जीव मरे सो काया’ जीव अमर है, काया मरती है । अगर इस विवेकको महत्त्व दें तो मरनेका भय मिट जायगा । जब हम मरते ही नहीं तो फिर मरनेका भय कैसा ? और जो मरता ही है, उसको रखनेकी इच्छा कैसी ? हमारा बालकपना नहीं रहा तो अब हम बालकपनेको लाकर नहीं दिखा सकते ! क्योंकि वह मर गया, पर हम वही रहे । अतः शरीर सदा मरनेवाला है और मैं सदा अमर रहनेवाला हूँ—इसमें क्या सन्देह रहा ? अब केवल इस बातका आदर करना है इसको महत्त्व देना है, इसका स्वयं अनुभव करना है, कोरा सीखना नहीं है । जैसे धन मिल जाय तो भीतरसे खुशी आती है, ऐसे ही इस बातको सुनकर भीतरसे खुशी आनी चाहिये और जीनेकी इच्छा तथा मरनेका भय नहीं रहना चाहिये ! कारण कि जिस बातसे हमारा दुःख, जलन, सन्ताप, रोना मिट जाय, उसके मिलनेसे बढ़कर और क्या खुशीकी बात होगी ! ऐसा लाभ तो करोड़ों-अरबों रुपयोंके मिलनेसे भी नहीं होता। कारण कि अरबों-खरबों रुपये मिल जायँ और पृथ्वीका राज्य मिल जाय तो भी एक दिन वह सब छूट जाएगा, हमारे से बिछुड़ जायगा !

अरब खरब लौं द्रव्य है, उदय अस्त लौं राज ।

तुलसी जो निज मरन है, तो आवे किहि काज ।।

हम शरीरमें अपनी स्थिति मान लेते हैं, अपनेको शरीर मान लेते हैं तो यह हमारी गलती है । गलत बातका आदर करना और सही बातका निरादर करना ही मुक्तिमें खास बाधा है । अपनेको शरीर मानकर ही हम कहते हैं कि मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ । वास्तवमें हम न बालक हुए, न हम जवान हुए, न हम बूढ़े हुए, प्रत्युत शरीर ही बालक हुआ, शरीर ही जवान हुआ, शरीर ही बूढ़ा हुआ । शरीर बीमार हो गया तो मैं बीमार हो गया, शरीर कमजोर हो गया मैं कमजोर हो गया, धन पासमें आ गया तो मैं धनी हो गया, धन चला गया तो मैं निर्धन हो गया—यह शरीर और धनके साथ एकता माननेसे ही होता है । जब क्रोध आता है, तब हम कहते हैं कि मैं क्रोधी हूँ ! विचार करें, क्या क्रोध सब समय रहता है ? सबके लिये होता है ? जो हरदम नहीं रहता और जो सबके लिये नहीं होता, वह मेरेमें कैसे हुआ ? कुत्ता घर में आ गया तो क्या वह घरका मालिक हो गया ? ऐसे ही क्रोध आ गया तो क्या मैं क्रोधी हो गया ? क्रोध तो आता है और चला जाता है, पर मैं निरन्तर रहता हूँ।

—‘अमरताकी और’ पुस्तकसे (पेज ५-९)


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