।। श्रीहरिः ।।

राग-द्वेष मिटाओ

परमात्मप्राप्तिके मार्गमें खास बाधक है राग और द्वेष । यह लुटेरे है । जब संसारमें राग-द्वेष नहीं हुआ तो भगवानके भजनमें शुरू कर दिया कि शंकरजी को नहीं मानेगे । जयश्रीकृष्ण कहेंगे पर जयशंकर नहीं कहेंगे, राम-राम कहेंगे तो अनाश्रय हो जायेगा ! श्रीकृष्ण शरणं मम्, जयश्रीकृष्ण ही कहेंगे ! खास नरकोंमें ले जानेवाली चीजोंको साथ रखेंगे । उपसनामें,भगवानके चिन्तनमें भी राग-द्वेष रखेंगे, तो नरकोमें जाओ !



बाधा केवल अपने मनकी ही होती है । दूसरी बाधा कोई है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं । ‘मेरे मनकी हो जाय’—यह खास बाधा है । मेरा कहना मानो, यह खास लड़ाई है । कोई अल्लाह ओ अकबर कहता है तो जैसे कोई सीताराम कहे वैसा ही आनंद अपनेको आना चाहिए । खुशी होनी चाहिए, वह अपनी भाषामें कह रहा है (उपासना कर रहा है) । कोई भी परमात्मतत्वकी प्राप्ति चाहता है तो किसी रूप, किसी नामसे उपासना करें; ठीक ही है । हमारेको द्वेष क्यों होना चाहिए ? हम कृष्ण-कृष्ण कहते है तो राम-राम कहनेकी जरुरत नहीं है, पर राम-राम सुनकर भी आनंद आना चाहिए कि हमारे प्रभुका ही नाम ले रहा है ! राम, माधव, मुकुंद, दामोदर भगवानके नाम है, ऐसे ही अल्लाह, अकबर परमात्माके नाम ही है । आनंद आना चाहिए, प्रसन्नता होनी चाहिए । ठीक है, अपनी-अपनी भाषामें सब पुकारते है ।
ह्रदयमें से राग-द्वेष आप किसी तरहसे मिटा दो । हिसाब करते है तो किसी तरहसे करो, टोटल ठीक आना चाहिए, ऐसे ही टोटलमें राग-द्वेष नहीं रहना चाहिए । ठीक-बेठीक, अनुकूलता-प्रतिकूलता, राग-द्वेष मिटा दो । किसी तरहसे, शास्त्ररीतिसे या कैसे भी ! बेडा पार ...
‘ज्ञेयः स नित्य सन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति’ ।
‘निर्द्वन्द्वो ही महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’ ॥ (गीता ५/३)
गीताजीमें कहा है । निर्द्वन्द हो जायेगा तो सुखपूर्वक मुक्त हो जायेगा । मुक्ति तो स्वतः है, यह राग-द्वेषकी कल्पना करके ही बंधन हुआ है । और बंधन क्या है ? यह ठीक है-यह बेठीक है,यह अच्छा है-यह बुरा है, भला है-मंदा है —यही बंधन है । यह खाता उठा दो चित्तसे, मुक्ति हो जायेगी ! करके देख लो आप । उपाय कोई भी कर लो, उपायके लिए स्वतंत्र हो आप ।
गीता, रामायण, बाइबल, कुरानमें लिखा हो वैसा करो; मरजी आवे किसी तरहसे कर लो । इनके सिवाय भी मर्जी आवे कर लो टोटलमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक नहीं रहना चाहिए । ‘यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः’॥ (गीता १२/१७) कितने ही पढ़ जाओ, विद्वान हो जाओ, वेदोंके जानकर हो जाओ पर हृदयमें राग-द्वेष होगा तो कल्याण नहीं होगा । ‘आचार हीनं न पुनाति वेदः’ । आचार क्या है ? राग-द्वेष आदि न होना । गीताजी सबको अच्छी क्यों लगती है ? क्योंकि गीतामें खास मुक्ति, कल्याणकी बात बतायी है । कोई आग्रह,द्वेष नहीं । हिंदू, मुस्लिम,बौद्ध, ईसाई हो कि जैन हो, यहूदी, पारसी कोई हो आप ; किसी तरहसे राग-द्वेष मिटा दो, बेडा पार ! तुम हिंदू बन जाओ, तुम मुसलमान बन जाओ, अपनी-अपनी टोली बनाते हो तो राग-द्वेष तो रखते हो । टोली बनाओगे तो राग-द्वेष रहेगा कि नहीं ? ‘मन चंगा तो कठोती गंगा’, अपना मन चंगा(भला) बनालो । सिवाय मौजके कोई बात नहीं है । केवल आनंद ही आनंद है ! स्वतः सिद्ध मुक्ति,आनंद है ।
(शेष आगेके ब्लोगमें, दि.२७/०१/१९९२ के प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे)