।। श्रीहरिः ।।

किसके भरोसे बैठे हो ?

विशेष कामकी, साधनकी बात है, जिससे अपना उत्थान हो जाय । नामकी महिमा जो जप करनेसे समझमें आती है वह पढने, कहने,सुननेसे नहीं आती है । भोजनकी महिमा जो भोजन करनेसे समझमें आती है ऐसी भोजनकी बातें करनेसे नहीं आती । संसार परिवर्तनशील प्रत्यक्ष दिखता है, उसको भी नहीं मानते है; क्या करें ? आपके,हमारे शरीरको देखो तो कितना बदल गया ! और बदलता ही चला जा रहा है । बचपनमें मेरेको किसीने देखा हो और आज देखे तो पहचान ही नहीं सकता । संसार मात्र प्रतिक्षण बदलता है । केवल परिवर्तनका पुंज है, उसका नाम संसार है । ऐसी कोई क्षण नहीं है जिसमें बदलता न हो—यह बात है । इसमें निश्चिंत बैठे है, आश्चर्यकी बात है । एक क्षणका भी भरोसा नहीं है । न जाने किस समयमें श्वास निकल जाएँ । बहार जानेवाला श्वासका क्या विश्वास कि लौटके आएगा ? कुछ भरोसा नहीं है । यह रहेगा नहीं, रह सकता ही नहीं । वहम है कि हम जी रहे है । बिलकुल झूठी बात है, मर रहे है । प्रतिक्षण मर रहे है । इधर ध्यान ही नहीं है । कहते है, सुनते है पर इधर ख्याल ही नहीं है । अपनेको स्थायी मान रहे है, आश्चर्यकी बात है । झूठ, कपट, बेईमानी, धोखेबाजी, विश्वासघात करके धन इकठ्ठा कर रहे है । सुख भोगनेके लिए कितने-कितने अन्याय, पाप, अत्याचार कर रहे है । गीताजीमें कहा है —भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त है वह परमात्मकी तरफ चल ही नहीं सकते है, जा नहीं सकते है ।
( दि.२७/०१/९२ दोपहर ३ बजेके प्रवचनका आंशिक भाग )