।। श्रीहरिः ।।

स्त्रियोंके प्रति


श्रोता —‘ॐ’का उच्चारण स्त्रीको नहीं करना चाहिए, यह कहाँ तक उचित है ?
स्वामीजी —ठीक ही है । देखो, इसमें गहरे उतरके देखो तो केवल अभिमानके सिवाय कुछ तत्व नहीं है । जो अभिमान ‘संसृति मूल सूलप्रद नाना, सकल शोकप्रद अभिमाना’ । सिवाय अभिमानके कुछ तत्व नहीं है इस प्रश्नमें ! हमारे ‘ॐ’ का अधिकार चाहिए । आप अधिकार लेकर करोगे क्या ? अधिकारमें धिक्कार है । जो अधिकार लेकर उपकार नहीं करता उसके अधिकारमें ‘अ’ नहीं रहता, धिक्कार रहता है । अपना कल्याण करना है कि अधिकार करना है । खुब गहरी रीतिसे समझो । स्त्रियोंके लिए छूट दी गयी, इनका कल्याणतो ‘एक ही धर्म एक ही व्रत नेमा, काय वचन मन पतिपद प्रेमा’ । इससे घृणा हो रही है कि ऐसा क्यों कहा ? आजकलके सुधारक कहते है कि स्त्री जातिका शास्त्रोंने तिरस्कार किया । और गर्भ गिराने, कन्याका गर्भ गिरा देना । हमें तो समझमें नहीं आती यह बात । महान अनर्थ करते है, मातृशक्तिका नाश कर रहे है । हम सब जितने बैठे है, माँ से ही पैदा हुए है, माँ से ही पले है और पहला गुरु माँ ही है । उस शक्तिका ही नाश कर देना, कितनी कृतघ्नता है । उस नाशमें भी अधिकार ! हम तो अधिकार नहीं मानते है । जो ॐ का उच्चारण करनेसे फायदा होता है, उससे ज्यादा राम-रामसे भला होगा ।


कलकत्तेकी बात है, बहुत वर्षोंकी, साठ वर्ष हुए होंगे पूरा संवत याद नहीं है । उस समय प्रसंग चला था तो मैंने यह बात कही थी कि ॐ उच्चारण करना, गायत्री पढना इससे कल्याण होगा, वह कल्याण सुगमतासे हो जाय तो आपको क्या बाधा है ? शास्त्रोंमें लिखा है, विष्णुपुराणमें आता है और दूसरी जगह भी आता है । उसमें लिखा है कि कलियुगमें जितना कल्याण जल्दी होता है, और शुद्रोंका कल्याण जितना जल्दी होता है, स्त्रियोंका कल्याण जितना जल्दी होता है ; उतना दुसरोंका जल्दी होता ही नहीं । जो हमारे लिए आफत छुडाई है और कल्याणकी बात सुगमतासे बताई है उससे घृणा हो रही है । अभिमानके कारण कि हमारा अधिकार होना चाहिए । अरे ! अधिकारमें क्या पड़ा है ? कल्याण होना चाहिए । मुक्ति जितनी ब्राह्मणोंके लिए कठीन है उतनी क्षत्रियोंके लिए नहीं है । देखो गीताजीकी एक बात बताऊ आपको । ब्राह्मणके लिए नौ धर्म बताये है, ‘शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्’ ॥ (गीता १८/४२), क्षत्रियके लिए सात—‘शौर्यं तेजो धृतिदाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् । दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्' ॥ (गीता १८/४३), वैश्य-बनियोंके लिए तीन —कृषी, गौरक्षा और व्यापार और शूद्रोंके लिए एक ‘परिचर्यात्मकं’, सेवा (गीता १८/४४) । ब्राह्मणका नौ धर्म पालन करनेसे जो कल्याण होगा,वही शुद्रको एक धर्मका पालन करनेसे हो जायेगा । ‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः’(गीता १८/४५), अपने–अपने कर्मका निष्ठापूर्वक पालन करनेसे कल्याण हो जायेगा । कितनी सुगमता बताई ! और स्त्रीके लिए तो ‘एक ही धर्म एक ही व्रत नेमा,काय वचन मन पतिपद प्रेमा’ । इसमें आज बात उठाते है कि शास्त्रोंमें स्त्रीका तिरस्कार किया गया, बड़ा अपमान किया गया ! अरे आप मातृशक्ति हो ! गर्भ गिरना —यह सम्मान है स्त्री जातिका ? महान अपमान है, स्त्री जातिकी घृणा है, पर ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ ।

स्त्रियोंको ॐ का उच्चारणका निषेध किया तो आफत ही छुड़ायी ! गायत्रीमें कितनी आफत है, तीन बार स्नान करो, अग्निहोत्र करना पडता है, वेद पढना पडता है । मनुजीने लिखा है कि स्त्रियोंके लिए पतिके घरमें रहना ही गुरुकुलका वास है और रसोई बनाना ही अग्निहोत्र है । कितनी सुगमता बतायी, सुगमतासे कल्याण हो जाय । आफतको चाहते हो कि हमारा अधिकार है ॐ का उच्चारण करनेका !

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—दि. २७/०१/१९९२, सायं ३ बजेके प्रवचनसे