।। श्रीहरिः ।।
दृढ़ भावसे लाभ

कहावत है कि ‘जिस गाँव में नहीं जाना है, उसका रास्ता क्यों पूछा जाय ?’ ऐसा दृढ़ भाव हो जाय कि ‘अपनी उम्रमें अमुक काम हमें नहीं ही करना है’ तो वह कार्य हो ही कैसे सकता है ? जैसे सिनेमा नहीं देखना है, तो नहीं ही देखना है । बीड़ी-सिगरेट आदि व्यसन नहीं करना है, तो नहीं ही करना है । चाय आज से नहीं पीना है, तो नहीं ही पीना है । समाप्त हुआ काम । अब झूठ नहीं बोलना है, तो झूठ बोलेंगे ही क्यों ? फिर झूठ निकल ही नहीं सकता । ऐसे ही प्रत्येक सद्गुण-सदाचारके ग्रहण और दुर्गुण-दुराचार के त्यागके लिये दृढ़ भाव बना लिया जाय तो यह भाव बहुत जल्दी बन सकता है और फिर वह अनायास ही आचरणमें भी आ सकता है ।

इसके लिये एक बहुत उपयोगी बात यह है कि हम अपनेको दृढ़प्रतिज्ञ बनावें । अर्थात् हरेक व्यवहारमें जो विचार कर लें, बस वैसा ही करें—यों करने पर विचारों की एक परिपक्वता हो जाती है, फिर संकल्प दृढ़ हो जाता है । इसी प्रकार जबानसे कह दें तो फिर वैसा ही करने की चेष्टा करें । बहुत ज्यादा दृढ़तासे कहें तो उसके पालनकी प्राणपर्यन्त चेष्टा करें । मर भले ही जायँ, पर अब तो करेंगे ऐसे ही । छोटे-छोटे कामोंमें इस प्रकार दृढ़ प्रतिज्ञताका स्वभाव बनानेकी चेष्टा करें तो हमारा स्वभाव सुधर जाता है । स्वभाव सुधरने पर फिर बड़ी-से-बड़ी बातें भी जो विचार कर लें, वे धारण हो जाती हैं । यह भाव-निर्माण तथा भाव-धारण-साधन बहुत सुगम है और बहुत ही श्रेष्ठ है ।

सेनामें लोग भरती होते हैं तो अपना नाम लिखा देते हैं और समझते हैं कि ‘हम तो सिपाही हो गये ।’ ऐसा भाव होने पर मन में स्वयं जिज्ञासा पैदा होती है कि सिपाही को क्या करना चाहिये । ऐसी जिज्ञासा होने पर शिक्षा दी जाती है और वह शिक्षा उनके धारण हो जाती है । ऐसे ही साधना करनेके लिये वैरागी पुरुष साधु बनता है, उसके मनमें आता है कि ‘मैं साधु बन गया’ तो ‘साधु को क्या करना चाहिये’—यह स्वयं उसके मनमें जिज्ञासा होती है । उसके बाद जब यह बताया गया है कि साधु का यह आचरण है, साधुको ऐसे बोलना, ऐसे उठना चाहिये, ऐसा आचरण करना चाहिये, यह व्यवहार करना चाहिये तो यह साधुताकी बात वह पकड़ लेता है; क्योंकि वह समझता है कि ‘मैं साधु हूँ, अत: मुझे अब साधुके अनुसार चलना ही है ।’ ऐसे ही अपने आपको साधक मान ले कि मैं तो भजन-ध्यान-साधन करने वाला साधक हूँ । जहाँ प्रवचनोंमें, ग्रंथोंमें यह बात आयेगी कि ‘साधकके लिये यों करना उचित है, साधकमें चंचलता नहीं चाहिये, उसे व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिये, हर समय भगवत्-भजन, ध्यानादि करना चाहिये, कुसंग का त्याग करना चाहिये, सत्संग और स्वाध्याय करना चाहिये, आदि’— इस प्रकार साधकके लिये जो कर्तव्य बतलाये जायँगे, उन कर्तव्योंको वह अपनेमें लानेकी स्वत: ही विशेष चेष्टा करेगा; क्योंकि वह अपने-आपको साधक मानता है । अत: साधकके लिये जो बातें आवश्यक हैं वे उसमें आ जायँगी, धारण हो जायँगी; पर जो मनुष्य अपनेको साधक नहीं मानेगा, वह कोई बात चाहे सत्संगमें सुने, व्याख्यानमें सुने या ग्रन्थोंमें पढ़े, उसके हृदयमें वह विशेषतासे धारण नहीं होगी और उन बातोंके साथ उसका घनिष्ठ संबंध नहीं होगा ।

बहुत-से भाई-बहिन साधन करते हैं, जप-पाठ आदि नित्य-नियम करते हैं, परन्तु नित्य-नियमके साथ समझते हैं कि यह तो घंटे-डेढ़-घंटे करनेका काम है । शेष समयमें समझते हैं कि हम तो गृहस्थ हैं, हमें अमुक-अमुक काम करने हैं, हम अमुक घरके, अमुक जातिके, अमुक वर्णाश्रमके हैं । घंटे-डेढ़-घंटे भगवान् का भजन कर लेना है, गीतापाठ कर लेना है, कीर्तन कर लेना है । सत्संग प्रतिदिन मिल गया तो प्रतिदिन कर लिया । बारह महीनेसे मिल गया तो बारह महीनेसे कर लिया । सत्संग कर लिया, एक पारी निकल गयी । ऐसा भाव रहता है । इसलिये विशेष सुधार नहीं होता, वह उस सत्संगको ग्राह्य-दृष्टिसे नहीं देखता । ग्राह्य-दृष्टिसे देखने और साधारण कुतूहलनिवृत्ति-दृष्टिसे देखनेमें बड़ा अन्तर है । हम सत्संगको कुतूहलनिवृत्ति या मन बहलानेकी तरह सुनते हैं । अत: धारणा नहीं होता । इसलिये हमें सत्संगको—साधन को ग्राह्य-दृष्टिसे देखना चाहिये और ऐसा भाव रखना चाहिये कि हमें तो निरन्तर भगवान् का भजन-ध्यान ही करना है । जो कुछ कार्य करना है वह भी केवल भगवान् का ही और भगवान् के लिये ही करना है । इस दृष्टिसे भगवान् के नाते ही सब काम किये जायँ तो उससे महान् लाभ हो सकता है ।

—'एक साधे सब सधे' पुस्तकसे
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhansudhasindhu/sarwopyogi/sarw12_535.htm