।। श्रीहरिः ।।


जिन खोजा तिन पाइया

परमात्मतत्त्व अद्वितीय है। उपनिषद् में आया है-
सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् ।
(छान्दोग्य. ६/२/१)
‘हे सोम्य ! आरम्भमें यह एकमात्र अद्वितीय सत् ही था’ ।
तात्पर्य है कि वह तत्त्व अद्वैत है । उस तत्त्वमें किसी भी तरहका भेद नहीं है । भेद तीन तरहका होता है—स्वगत भेद, सजातीय भेद और विजातीय भेद । जैसे, एक शरीरमें भी पैर अलग हैं, हाथ अलग हैं, पेट अलग हैं, सिर अलग हैं—यह ‘स्वगत भेद’ है । वृक्ष-वृक्षमें कई भेद हैं, गाय-गायमें अनेक भेद हैं—यह ‘सजातीय भेद’ है । वृक्ष अलग हैं और गाय, भैंस, भेंड़ आदि पशु अलग हैं—यह स्थावर और जंगम का भेद ‘विजातीय भेद’ है । परमात्मतत्त्व ऐसा है कि उसमें न स्वगत भेद है, न सजातीय भेद है और न विजातीय भेद है । परमात्मतत्त्वमें कोई अवयव नहीं है, इसलिये उसमें ‘स्वगत भेद’ नहीं है । जीव भिन्न-भिन्न होने पर भी स्वरूपसे एक ही हैं; अत: उसमें ‘सजातीय भेद’ भी नहीं है । वह परमात्मतत्त्व सत्तारूपसे एक ही है ।

जैसे, समुद्रमें तरंगें उठती हैं, बुदबुद पैदा होते हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर यह सब-का-सब जल ही है । इस जलसे भाप निकलती है । वह भाप बादल बन जाती है । बादलोंसे फिर वर्षा होती है । कभी ओले बरसते हैं । वर्षाका जल बह करके सरोवर, नदी-नालेमें चला जाता है । नदी समुद्रमें मिल जाती है । इस प्रकार एक ही जल कभी समुद्र रूपसे, कभी भाप रूपसे, कभी बूँद रूपसे, कभी ओला रूपसे, कभी नदी रूपसे और कभी आकाशमें परमाणु रूपसे हो जाता है । समुद्र, भाप, बादल, वर्षा, बर्फ, नदी आदिमें तो फर्क दीखता है, पर जल तत्त्वमें कोई फर्क नहीं है । केवल जल-तत्त्वको ही देखें तो उसमें न समुद्र है, न भाप है, न बूँदें हैं, न ओले हैं, न नदी है, न तालाब है । ये सब जलकी अलग-अलग उपाधियाँ हैं । तत्त्वसे एक जलके सिवाय कुछ भी नहीं है । इसी तरह सोनेके अनेक गहने होते हैं । उनका अलग-अलग उपयोग, माप-तौल, मूल्य, आकार आदि होते हैं । परन्तु तत्त्वसे देखें तो सब सोना-ही-सोना है । पहले भी सोना था, अन्तमें भी सोना रहेगा और बीचमें अनेक रूपसे दीखने पर भी सोना ही है। मिट्टीसे घड़ा, हाँडी, ढक्कन, सकोरा आदि कोई चीजें बनती हैं । उन चीजोंका अलग-अलग नाम, रूप, उपयोग आदि होता है । परन्तु तत्त्वसे देखें तो उनमें एक मिट्टीके सिवाय कुछ भी नहीं है । पहले भी मिट्टी थी, अन्तमें भी मिट्टी रहेगी और बीचमें भी अनेक रूपसे दीखने पर भी मिट्टी ही है । इसी प्रकार पहले भी परमात्मा थे, बादमें भी परमात्मा रहेंगे और बीचमें संसार रूपसे अनेक दीखने पर भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
'साधन-सुधा-सिंधु' पुस्तकसे