।। श्रीहरिः ।।


जिन खोजा तिन पाइया-२


(गत ब्लॉगसे आगेका)

यह संसार दीखता है, इसमें अलग-अलग शरीर हैं । स्थूल, सूक्ष्म और कारण—ये तीन शरीर है । कोई स्थिर रहनेवाला (स्थावर) शरीर है, कोई चलने-फिरने वाला (जंगम) शरीर है । स्थिर रहनेवालोंमें पीपलका वृक्ष है, कोई नीमका वृक्ष है, कोई आमका वृक्ष है, कोई करीलका वृक्ष है । तरह-तरहके पौधे हैं, घास हैं । चलने-फिरने वालोंमें कई तरहके पशु-पक्षी, मनुष्य आदि हैं । ये सभी पृथ्वी पर हैं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश—ये पंच महाभूत हैं । इनसे आगे समष्टि अहंकार है । फिर महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) है । महत्तत्त्वके बाद फिर मूल प्रकृति है । ये सब मिलकर संसार हैं । संसारके आदिमें भी परमात्मा हैं, अन्तमें भी परमात्मा हैं और बीचमें अनेक रूपसे दीखते हुए भी तत्त्वसे परमात्मा ही हैं ।

मनसा वचसा दृष्टया गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियै: ।

अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वजमंज्जसा ॥
(श्रीमद्भागवत ११/१३/२४)

‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अत: मेरे सिवाय दूसरा कोई भी नहीं है—यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें अर्थात् स्वीकार कर लें ।’ देखने, सुनने और चिन्तन करनेमें जितना संसार आता है, वह मोहमूल ही है; क्योंकि उसकी वास्तविक और स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं—
‘देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं, मोह मूल परमारथु नाहीं’ ॥
(रामचरितमानस २/९२/४)

संसार पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा, केवल बीचमें बना हुआ दीखता है । बनी हुई (बनावटी) चीज निरन्तर मिट रही है और स्वत: सिद्ध परमात्मतत्त्व ही अनेक रूपोंसे दीखता है । परमात्मतत्त्व एक होते हुए भी अनेक रूपोंसे दीखता है और अनेक रूपोंसे दीखने पर भी स्वरूपसे एक ही रहता है । कारण कि वह एक ही था, एक ही है और एक ही रहेगा । वह एक रूपसे दीखे तो भी वही है और अनेक रूपसे दीखे तो भी वही है । जलसे बने भाप, बादल, बर्फ आदि सब जल ही है, सोनेसे बने गहने सोना ही है, मिट्टीसे बने बर्तन मिट्टी ही है । इसी तरह जो अनेक रूपोंमें एक परमात्मतत्त्वको ही देखता है, वही तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, ज्ञानी-महात्मा होता है । कारण कि उसको यथार्थ ज्ञान हो गया, उसने परमात्माको तत्त्वसे जान लिया । तत्त्वसे जानते ही वह परमात्मामें प्रविष्ट हो जाता है—‘ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्’ (गीता १८/५५) फिर एक तत्त्व ही शेष रह जाता है । परमात्मतत्त्व पहले एक था, पीछे एक रहेगा और अभी अनेक रूपोंसे दीखता है—ये तीनों बातें काल (भूत, भविष्य और वर्तमान) को लेकर हैं । परन्तु उस तत्त्वमें काल है ही नहीं । इसी तरह वहाँ न देश है, न क्रिया है, न वस्तु है, न व्यक्ति है, न घटना है, न परिस्थिति है, न अवस्था है । केवल एक अद्वैत तत्त्व है ।


-'साधन-सुधा-सिन्धु' पुस्तकसे


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