।। श्रीहरिः ।।
मुक्ति सहज है

देखो, वस्तु, व्यक्ति और क्रिया—ये तीन चीजें दीखनेमें आती हैं । इनमें वस्तु और क्रिया—ये दोनों प्रकृति हैं और व्यक्त रूपमें जो दीखता है, यह शरीर भी प्रकृति ही है; परन्तु इसके भीतरमें जो न बदलने वाला है, यह परमात्मा अंश है । अब अगर ‘यह’ वस्तु, क्रिया और व्यक्तिमें नहीं उलझे, तो यह स्वाभाविक ही मुक्त है; क्योंकि ‘यह’ परमात्माका साक्षात् अंश है । इसके लिये कहा है—‘चेतन अमल सहज सुख रासी’—यह चेतन है, शुद्ध है, मलरहित है और सहज सुखराशि है, महान् आनन्दराशि है । यह महान आनन्दराशि अपने स्वरूपकी तरफ ध्यान न दे करके संसारके सम्बन्धके सुख चाहने लग गया । इससे यही भूल हुई है । यह संयोगजन्य सुखमें फँस गया । जैसे, धन मिले तो सुख हो, भोजन मिले तो सुख हो, भोग मिले तो सुख हो, कपड़ा, वस्तु, आदर, मान-सत्कार मिले तो सुख हो । यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि स्वयं नित्य-निरन्तर रहने वाला है । ‘सहज सुख रासी’ स्वाभाविक ही सुखराशि है; परन्तु इसमें यह वहम पड़ गया है कि संसारके पदार्थ मिलनेसे सुख होगा । यह बिछुड़ेगा जरूर ही ‘संयोगा विप्रयोगान्ताः’ जितने संयोग होते हैं उनका अन्तमें वियोग होता है तो सम्बन्धसे होनेवाला सुख रहेगा कैसे ? मनुष्य यह विचार नहीं करता है कि आज दिनतक संयोगसे जितने सुख लिये थे वे आज नहीं रहे । संयोगसे होनेवाले सुखका नमूना तो देख ही लिया; लेकिन अब भी चेत नहीं करते फिर और चाहते हैं कि संयोगसे सुख ले लें ।


जबतक बाहरके संयोगके सम्बन्धसे सुख लेगा, तबतक इसकों वास्तविक सुख नहीं मिलेगा ‘बाह्यस्पर्शेव्षसक्तात्मा’ (गीता ५/२१) बाह्य सुख (संयोगजन्य सुख) में आसक्त नहीं होगा तो ‘विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्’ उस विलक्षण सुखको आप-से-आप प्राप्त हो जायगा । संसारके सम्बन्धसे सुख लेनेसे इसका वास्तविक सुख गुम हो गया । वह सुख नहीं हैं; परन्तु यह उस सुखसे वियुक्त हो गया । जिनको वह सुख मिल गया वे आनन्दित हो गये । उनके कभी सांसारिक सुखकी इच्छा ही नहीं रहती । क्योंकि उनको जो वास्तविक सुख मिला, आनन्द मिला उसके समान कोई दूसरा सुख है नहीं । यह स्वयं सुखराशि होकर संयोगजन्य सुख चाहता है, सांसारिक सुखमें राजी होता है—यह बड़े भारी आश्चर्य की बात है । मिलने वाले व बिछुड़नेवाले सुखमें राजी होता है । आप ‘स्वयम्’ रहनेवाले हैं और यह सुख आने-जानेवाला है तो इस सुखसे कैसे काम चलेगा ?



आप रहनेवाले और आपके भीतर परमात्मा रहनेवाले हैं । रहनेवाले परमात्माके साथ रह जाओ तो सदाके लिये सुख मिल जाय । वह सुख कभी मिटेगा नहीं । उत्पन्न और नष्ट होनेवाले शरीरके साथ तथा संयोग और वियोग होनेवाले पदार्थोंसे सुख लेगा तो वह सुख कितना दिन रहेगा ? संतोंने कहा कि ‘ऐसी मूढ़ता या मनकी’ ऐसी मूढ़ता है इस मनकी । ‘परिहरि राम-भगति सुर-सरिता’ भगवान् की भक्ति गंगाजी है उसको छोड़ करके ‘आस करत ओस कनकी’ रात्रिमें ओस पड़ती है, घासकी पत्तीपर जलकी बूँदें चमकती हैं उस ओस-कणसे तृप्ति करना चाहता है । तात्पर्य हुआ भगवान् की भक्तिरूपी गंगाजी बह रही है उसको छोड़ करके ओस-कणके समान—धनसे सुख मिल जाय, स्त्रीसे सुख मिल जाय, पुत्रसे सुख मिल जाय, मानसे सुख मिल जाय, बड़ाईसे सुख मिल जाय, नीरोगतासे सुख मिल जाय आदि संयोगोंसे सुखको चाहता है । इन पदार्थोंमें सुख ढूँढ़ता है, इनके पीछे भटकता है—ये तो ओसकी बूँदें है भाई ! तरह-तरह की चमकती हैं । थोड़ा-सा सूर्य चढ़ा कि खत्म हो जायँगी, सूख जाएँगी तो इनसे तृप्ति कैसे हो जायगी ? ओसके कणोंसे प्यास कैसे बुझेगी ? ‘ऐसी मूढ़ता या मनकी’ तो भाई ! सच्चा सुख चाहते हो उन परमात्माकी तरफ चलो, उनके साथ सम्बन्ध मानो ।

— ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे(दि.१६/०४/१९८३, मुरली मनोहर धोरा, बीकानेरके प्रवचनसे)