।। श्रीहरिः ।।
‘वासुदेवः सर्वम्’ की सिद्धि कैसे करें ?


प्रश्न—सब कुछ भगवान् ही हैं—ऐसा अनुभव करनेका साधन क्या है ? किस तरह इसकी सिद्धि होती है ?
उत्तर—अगर आप ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करना चाहते हैं तो बड़ी दृढधातासे इस बातको मान लें कि जिस शरीरको हम अपना मानते हैं, वह हमें संसारसे मिला है और छूट जायगा; अतः वह मेरा नहीं है । प्रत्यक्ष बात है कि शरीर जन्मसे पहले मेरा नहीं था और मृत्युके बाद मेरा नहीं रहेगा और अभी भी प्रतिक्षण मेरेसे अलग हो रहा है । जितनी उम्र बीत गयी, उतना तो शरीर हमसे अलग हो गया है, अब बाकी कितना रहा है, इसका पता नहीं । कर्मयोगकी दृष्टिसे शरीर संसारका है, ज्ञानयोगकी दृष्टिसे प्रकृतिका है और भक्तियोगकी दृष्टिसे परमात्माका है । शरीरको किसीका भी मानें, पर यह मेरा नहीं है—यह सर्वसिद्धान्त है । जो वस्तु मिली हुई है और बिछुड जायगी, वह अपनी कैसे हुई ? शरीर मिला हुआ है, बिछुड जायगा और निरन्तर बिछुड रहा है—ये तीनों बातें सन्देहरहित हैं ।


इस प्रकार शरीरको संसारका मानकर संसारकी सेवामें लगा दें और शरीर, मन, वाणीसे किसीका भी बुरा न चाहें तो ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव हो जायगा । हमें वही सेवा करनी है,जिसको करनेकी हमारेंमें सामर्थ्य है और सेवा लेनेवाला हमारेसे न्याययुक्त सेवा चाहता है । जो हमारेसे अन्याययुक्त, शास्त्रविरुद्ध सेवा चाहता है, उसको नहीं करना है । हम ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करना चाहते हैं, तो अन्याययुक्त काम हम नहीं करें और न्याययुक्त काम भी उतना करें, जितनी हमारी शक्ति है । एक मार्मिक बात है कि भला करनेकी अपेक्षा बुरा न करना ( बुराईका त्याग ) बहुत ऊँची साधना है । भलाई करनेमें जोर आता है, पर बुराई न करनेमें कोई जोर नहीं आता । बुराई न करनेसे दो बातें होंगी—केवल भलाई करेंगे अथवा कुछ भी नहीं करेंगे । कुछ भी नहीं करनेसे परमात्मामें स्वतः स्थिति होती है; क्योंकि कुछ करनेसे ही संसारमें स्थिति होती है । भलाई करनेसे अभिमान आ सकता है, पर बुराई न करनेसे अभिमान आता ही नहीं । इसलिए बुराईका त्याग करें अर्थात् न बुरा करें, न बुरा सोचें और न बुरा कहें ।
भागवतमें ‘वासुदेवः सर्वम्’ का साधन बताया है—


विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रिडां च दैहिकीम् ।
प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्वचाण्डालगोखरम् ॥
( श्रीमद्भागवत ११/२९/१६ )

‘हँसी उड़ानेवाले अपने लोगोंको और अपने शरीरकी दृष्टिको भी लेकर जो लज्जा आती है, उसको छोडकर अर्थात् उसकी परवाह न करके कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर लंबा गिरकर भगवद् बुद्धिसे साष्टांग प्रणाम करें ।’


जो भी प्राणी सामने आये, उसको साष्टांग प्रणाम करें । शरीरकी लज्जा आती हो तो उसको छोड़ दें और लोग हँसी उड़ाते हों उसकी परवाह मत करें; क्योंकि हमें उससे क्या मतलब ? हमें तो ‘वासुदेवः सर्वम्’ सिद्ध करना है । दृढ़ निश्चय हो जायगा तो ऐसा करनेमें कठिनता नहीं होगी । अगर कठिनता लगती हो तो मनसे ही दण्डवत् प्रणाम कर लें । ऐसा कोई प्राणी न छूटे, जिसको नमस्कार न किया हो । किसी भी वर्ण, आश्रम, जाति, धर्म, सम्प्रदायका मनुष्य हो, वह भगवान् ही है । इसमें चार बातें है—१. इन प्राणियोंके भीतर भगवान् हैं, २. ये भगवान् के भीतर हैं, ३. ये भगवान् के हैं और ४. ये भगवान् ही हैं—ऐसा मानना सबसे सुगम है । अतः ऐसा मान लें कि ये भगवान् के हैं, भगवान् को प्यारे है, इसलिए हम इनको प्रणाम करते हैं । ऐसा करनेका परिणाम क्या होगा, यह भगवान् बताते हैं—


नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात् ।
स्पर्धाऽसूयातिरस्काराः साहङ्कारा वियन्ति हि ॥
(श्रीमद्भागवत ११/२९/१५ )


‘जब भक्तका सम्पूर्ण स्त्री-पुरुषोंमें निरन्तर मेरा ही भाव हो जाता है अर्थात् उनमें मुझे ही देखता है, तब शीध्र ही उसके चित्तसे ईर्ष्या, दोषदृष्टि, तिरस्कार आदि दोष अहंकार-सहित सर्वथा दूर हो जाते हैं ।’


इसलिए मनुष्यमात्रमें भगवान् का भाव रखें । कहीं भाव न हो सके तो मनसे माफ़ी माँग लें । किसीको कहनेकी, जनानेकी जरुरत नहीं । शरीर-मन-वाणीसे संसारकी सेवा करनी है और संसार भगवान् का विराट् रूप है । अतः भगवान् के ही शरीर-मन-वाणीसे भगवान् की ही सेवा करनी है । फिर ‘वासुदेवः सर्वम्’ सिद्ध हो जायगा; क्योंकि यह कोई नया निर्माण नहीं है, प्रत्युत पहलेसे ही है । इसके लिए विद्याध्ययन, धनसम्पत्ति, बल, अनुष्ठान आदिकी जरुरत नहीं है । इसको हरेक भाई-बहन कर सकता है ।

—‘अमरताकी और’ पुस्तकसे