।। श्रीहरिः ।।

‘वासुदेवः सर्वम’ का

साधन कैसे सिद्ध हो ?-२

( गत् ब्लॉगसे आगेका )

सन्तोंने कहा है—


हाथ काम मुख राम है, हिरदै साची प्रीत ।
दरिया गृहस्थी साध की, याही उत्तम रीत ॥


हाथसे काम करते रहें और मुखसे राम-राम करते रहें । इसके साथ ही भगवान् से बार-बार कहते रहें कि ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ । किसीको बुरा मत मानें । किसीको बुरा मान लिया तो समझें कि हमारा व्रत भंग हो गया ! अतः उसको प्रत्यक्ष अथवा मनसे नमस्कार करके क्षमा माँग ले । फिर भगवान् से प्रार्थना करें कि ‘हे नाथ ! मैं भूलूँ नहीं; हे प्रभो ! मेरा यह साधन सिद्ध हो जाय !’ एक साधु थे । उनको सत्संगमें कोई बात अच्छी लगती तो भगवान् से कह देते कि ‘महाराज ! यह बात आप अपने खजानेमें जमा कर लो, अगर मैं भूल जाऊँ तो मेरेको याद दिला देना’ । भगवान् के समान कोई मालिक नहीं, कोई नौकर नहीं, कोई मित्र नहीं ! अचानक बैठे-बैठे भगवान् की याद आ जाय तो यह समझकर बड़े खुश हो जाना चाहिए कि भगवान् मेरेको याद कर रहे हैं ! भगवान् ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा कर दी ! मैं तो भूल गया था, पर भगवान् ने याद कर लिया, जिससे मेरेको भगवान् याद आ गए । इस प्रकार भगवान् की कृपाका आश्रय लेनेपर ‘वासुदेवः सर्वम्’ का साधन सुगम हो जायगा; क्योंकि ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’ —यह बात कृपासे समझमें आती है, अपनी बुद्धिमानीसे, अपने उद्योगसे नहीं । उद्योग करनेसे तो कर्तृत्व आता है, जो इसके अनुभवमें बाधक है । आजतक जितने भी महात्मा हुए हैं, वे भगवत्कृपासे जीवन्मुक्त, तत्वज्ञ और भगवत्प्रेमी हुए हैं, अपने उद्योगसे नहीं । इसलिए साधकको उद्योगका आश्रय न लेकर भगवत्कृपाका ही आश्रय लेना चाहिए । शरीर-इन्द्रियोंकी सार्थकताके लिए उद्योग करना चाहिए, पर परमात्मतत्व उद्योगसाध्य नहीं है ।
—‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे


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