।। श्रीहरिः ।।

संसारका आश्रय कैसे छूटे ?


हम भगवान् के आश्रित हो जायँ अथवा संसारका आश्रय छोड़ दें दोनोंका एक ही अर्थ होता है। संसारका आश्रय सर्वथा छूट जानेसे भगवान् का आश्रय स्वत: प्राप्त हो जाता है और भगवान् के सर्वथा आश्रित हो जाने से संसारका आश्रय स्वत: छूट जाता है । इन दोनोंमें से किसी एक की मुख्यता रखकर चलें अथवा दोनोंको साथ रखते हुए चलें, एक ही अवस्था हो जाती है अर्थात् कल्याण हो जाता है ।

भगवान् के आश्रित होनेमें संसारका आश्रय ही खास बाधक है । संसारका आश्रय न छूटनेमें खास कारण है—संयोगजन्य सुखकी आसक्ति । संयोगजन्य सुखमें मनका जो खिंचाव है, प्रियता है, यही संसारके आश्रयकी, संसारके संबंध की खास जड़ है । यह जड़ कट जाय तो संसारका आश्रय छूट जायगा । परन्तु भीतरसे संयोगजन्य सुखकी लोलुपता रहते हुए बाहरसे चाहे संबंध छोड़ दो, साधु भी बन जाओ, पैसा भी छोड़ दो, पदार्थ भी छोड़ दो, गाँव छोड़कर जंगलोंमें चले जाओ, तो भी संसारका आश्रय छूटेगा नहीं ।संयोगजन्य सुख आठ प्रकारका है—शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मान (शरीर का आदर-सत्कार), बड़ाई (नाम की प्रशंसा) और आराम ।

ये आठ प्रकारके संयोगजन्य सुख ही मूल बाधाएँ हैं । जबतक इन सुखोंमें आकर्षण है, प्रियता है, ये अच्छे लगते हैं, तबतक संसारका आश्रय छूटता नहीं । अगर केवल भगवान् का ही आश्रय ले लिया जाय तो संसार का आश्रय छूट जायगा । संयोगजन्य सुखका बड़ा भारी आकर्षण है । पर वह कब छूटेगा ? जब मनुष्य केवल भगवान् का आश्रय लेकर भगवान् के भजन-स्मरणमें लीन होगा । भगवान् के भजन-स्मरण में लीन होने से जब पारमार्थिक सुख मिलने लगेगा, तब संयोगजन्य सुख सुगमतासे, सरलतासे, छूट जायगा ।

उस पारमार्थिक सुखमें इतनी विलक्षणता, अलौकिकता है कि उसके सामने संसारके सब सुख नगण्य हैं, तुच्छ हैं, कुछ नहीं हैं । जब वहाँ पारमार्थिक सुख मिलने लगेगा, तब संसारके सुख फीके पड़ जायँगे, स्वत: स्वाभाविक तुच्छ लगने लगेंगे । अत: उस पारमार्थिक सुखको, आनन्दको ही लेना चाहिये । उसको लेनेके दो तरीके हैं चाहे भावना-(भक्ति) से ले लो और चाहे विवेक-(ज्ञान-) से ले लो । भगवान् से ऐसे लो कि भगवान् हैं, वे मेरे हैं और मैं उनका हूँ—

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई रे ।

भगवान् को अपना माननेके साथ-साथ ‘दूसरो न कोई’—यह मानना जरूरी है । परन्तु होता यह है कि संसारमें अपनापन रखते हुए भगवान् में अपनापन करते हैं । वास्तवमें संसारके साथ अपनापन रहता नहीं—यह निश्चित बात है । जन्मसे पहले जिस कुटुम्बके साथ अपनापन था, आज उस कुटुम्बकी याद ही नहीं है । इसी प्रकार आज जिस कुटुम्बके साथ, जिन रुपयोंके साथ, जिन भोगोंके साथ हमारा अपनापन है, वे भविष्यमें याद तक नहीं रहेंगे, संबंध तो क्या रहेगा ? अत: जो रहेगा ही नहीं, उसको छोड़नेमें क्या जोर आता है ? जो रहने वाला हो, उसको यदि छोड़नेके लिये कहा जाय, तब तो कुछ कठिनता भी मालूम देगी कि रहने वाली चीज को कैसे छोड़ दें ! पर संसार तो छूटेगा ही और छूटता ही चला जा रहा है; अत: उसको छोड़नेमें कठिनता कैसी ? केवल मूर्खता के कारण ही हमने उसको पकड़ रखा है।

थोड़ा-सा विचार करें तो बात स्पष्ट समझमें आती है कि बाल्यावस्थामें हमारा जिन मित्रोंके साथ, जिन खिलौनोंके साथ, जिन व्यक्तियोंके साथ संबंध था, वह संबंध आज केवल याद-मात्र है । आज वह संबंध नहीं है । न उस अवस्थाके साथ संबंध है, न उन घटनाओं के साथ संबंध है । न उन खिलौनोंके साथ संबंध है, न उस समयके साथ संबंध है । अब आप कहते हो कि हमारी बाल्यावस्था ऐसी थी और हम अड़ जायँ कि ऐसी नहीं थी, तो आपके पास कोई प्रबल प्रमाण नहीं है कि आप उसको हमें बता सकें । आप और हम जिद भले ही कर लें, पर ‘हमारी बाल्यावस्था ऐसी थी’—इसको आप और हम नहीं बता सकते । बतायें भी तो क्या बतायें और कैसे बतायें ?

किसकी ताकत है, जो उसको बता दे ? आपको अपनी बाल्यावस्था वर्तमान अवस्थाकी तरह सच्ची दीखती थी, पर आज आप उसको सिद्ध नहीं कर सकते, तो फिर आज आपकी जो अवस्था है, उसको आगे सिद्ध करना चाहेंगे तो कैसे करेंगे ? जिस तरहसे उस बाल्यावस्थाका समय बीता उसी तरहसे यह आजका समय बीत रहा है । भविष्यमें क्या होगा, अभी घण्टे भर बादमें क्या होगा, कुछ पता नहीं ! आजसे युगों पहले क्या हुआ, पता नहीं और आजसे युगों बाद क्या होगा, पता नहीं । वर्तमान भी बड़ी तेजीसे बीत रहा है । वर्तमान, ‘है’ का नाम नहीं है, प्रत्युत जो बरत रहा है अर्थात् तेजीसे जा रहा है, उसका नाम वर्तमान है । वर्तमान इतनी तेजीसे जा रहा है कि इसका एक क्षण भी स्थिर नहीं है । वर्तमान कोई काल है ही नहीं, केवल भूत और भविष्यकी सन्धिको वर्तमान कहा गया है । वर्तमान शब्दका अर्थ ही है—चलता हुआ । जो भविष्य है, वह सामने आ करके भूतमें जा रहा है, उसको वर्तमान कहते हैं । इस प्रकार जो कभी स्थिर रहता ही नहीं, जिसका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है, उससे विमुख होनेमें क्या जोर आता है, बताओ ? यह तो जबरदस्ती छूटेगा, रहेगा नहीं । इसको रखना चाहोगे तो बेइज्जती, दु:ख, सन्ताप, जलन, आफतके सिवाय और कुछ मिलनेका है नहीं । परन्तु इसको छोड़ दोगे तो निहाल हो जाओगे ! अत: चाहे संसारके संबंधका त्याग कर दो चाहे भगवान् के साथ संबंध मान लो कि ‘हे भगवान् ! आप ही हमारे हो’। भगवान् का ही नाम लो, उनका ही चिन्तन करो, उनके आगे रोओ और कहो कि ‘महाराज ! संसार का त्याग करने में मैं तो हार गया, मुझे अपनी मनोवृत्तियाँ बड़ी प्रबल प्रतीत होती हैं।’ ऐसे करके भगवान् के शरण हो जाओ । तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-

हौं हार्यो करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै ।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेर क प्रभु बरजै ।।

(विनय पत्रिका ८१)

हमारेसे तो ये शत्रु सीधे होते नहीं । वे प्रभु कृपा करेंगे, तभी ये सीधे होंगे । परन्तु अपनी शक्तिका पूरा उपयोग किये बिना मनुष्य अपनी शक्तिसे हताश नहीं हो पाता—अपने में असमर्थताका अनुभव नहीं कर पाता । अपनी शक्तिसे हताश हुए बिना अभिमान नहीं मिटता कि मैं ऐसा कर सकता हूँ । पूरी शक्ति लगाकर भी काम न बने तो कह दे कि ‘हे नाथ ! अब मैं कुछ नहीं कर सकता !’ तो फिर उसी क्षण काम बन जायगा । परन्तु पूरी शक्ति लगाये बिना ऐसी अनन्यता नहीं आती । इसलिये जो आप कर सकते हैं, उसे पूरा करके मन की निकाल दें । जब भीतर यह विश्वास जायगा कि मेरी शक्तिसे काम नहीं होगा, तब स्वत: पुकार निकलेगी कि ‘हे नाथ ! मेरी शक्तिसे नहीं होता’ और उसी क्षण भगवान् की शक्तिसे काम पूरा हो जायगा । अपनी शक्ति बाकी रखते हुए भगवान् के अनन्य शरण नहीं हो सकते । अगर अपनी शक्तिका कुछ आश्रय है कि हम कुछ कर सकते हैं, तो करके पूरा कर लो । जितना जोर लगाना हो, पूरा-का-पूरा लगा लो । पूरा जोर लगाने पर जब बाकी नहीं रहेगा, तब कार्य सिद्ध हो जायगा । कारण कि संसारका जो आश्रय है, वह परमात्माका आश्रय नहीं लेने देता, इतना ही उसका काम है और खुद वह रहता नहीं !


—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे

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