।। श्रीहरिः ।।
सत्संगकी आवश्यकता-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)

सत्संगति सब मैलोंको दूर करती है; परन्तु सत्संग करते रहनेसे । यदि मनुष्य सत्संगति करे ही नहीं तो मैल दूर कैसे हो ? पित्तका बुखार होनेसे मिश्री कडवी लगती है, कैसे करें ? तो कडवी लगनेपर भी खाते रहो । मिश्रीमें खुदमें ताकत है कि वह पित्तको शान्त कर देगी और मीठी लगने लग जायगी । ऐसे ही सत्संग-भजनमें रूचि न हो तो भी सत्संग-भजन करते रहनेसे ज्यों-ज्यों पाप नष्ट होने लगेंगे, त्यों-त्यों सत्संगमें मिठास आने लगेगा ।

जिस मिठाईको हम चखे ही नहीं, उसका स्वाद हम कैसे जान सकते हैं । ऐसे ही जिन्होंने सत्संग किया ही नहीं, वे इसकी विशेषता नहीं जानते, फिर भी कह देते हैं कि हमने बहुत सत्संग सुना है । तो समझ लेना चाहिये कि उन्होंने विशेष सत्संग किया ही नहीं, अन्यथा सत्संगमें रूचि अवश्य बढ़ती—


राम चरित जे सुनत अघाहीं । रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥
(मानस, उत्तर. ५३/१)


जो मनुष्य भगवान् के चरित्र सुनते हैं और तृप्त हो जाते हैं, उन्होंने राम-कथाका विशेष रस जाना ही नहीं । अन्यथा—


जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना । कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ॥
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे । ..........................................॥
(मानस, अयोध्या. १२८/४-५)


आपकी कथाएँ नदियोंके समान और उन सत्संग-प्रेमियोंके कान ऐसे समुद्रके समान हैं; जो निरंतर कथारूपी नदियोंके गिरने (मिलने) पर भी कभी पूरे भरते नहीं हैं । राजा पृथुने भगवान् की कथा सुननेके लिये दस हजार कान माँगे ।

पागल व्यक्ति जैसे सँभालकर नहीं बोल सकता —ऐसे ही संसारी पुरुष सत्संगके बारेमें उलटी-सीधी बातें कहते हैं—


बातुल भूत बिबस मतवारे । ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥
(मानस, बाल. ११५/७)

ऐसे लोगोंके पैरोंमें पड जाओ । उनसे कहो—‘आप पवित्र हो, बड़ी अच्छी बात है । आप सत्संगमें पधारो । अन्य सत्संगमें आनेवाले लोगोंको पवित्र करो ।’ ऐसे कहकर उन्हें सत्संगमें बुलाओ । नहीं आवे तो उनकी मरजी । गाली दें तो सह लो । जो गाली सुनाता है वह तो हमारे पापोंको दूर करता है ।

सत्संगकी महिमा कहाँतक कही जाय ? स्वयं भगवान् शंकर श्रीरामजीसे सत्संग माँगते हैं ।


बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥
(मानस, उत्तर.१४(क))

भगवान् शंकरको कौन-सा पापा दूर करना था ? कौन-सी साधना सीखनी थी ? जो सदा सत्संग ही चाहते हैं । भगवान् शंकरको कोई राम-कथा सुनानेवाले मिलते हैं तो सुनते हैं और पार्वतीजी-जैसे सुननेवाले मिलते हैं तो सुनाते हैं ।


‘मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
(गीता १०/९)

‘मेरमें चित्तवाले, मेरेमें प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन आपसमें मेरे गुण, प्रभाव आदिको जानते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्य-निरंतर संतुष्ट रहते हैं और मेरेमें प्रेम करते हैं ।’

एक भक्त हो गये हैं— जयदेव कवि । ‘गीत-गोविन्द’ उनका बनाया हुआ बहुत सुन्दर संस्कृत-ग्रन्थ है । भगवान जगन्नाथ स्वयं उनके ‘गीत-गोविन्द’ को सुनते थे । भक्तोंकी बात भगवान् ध्यान देकर सुनते हैं । एक मालिन थी, उसको ‘गीत-गोविन्द’ का एक पद (धर) याद हो गया । वह बैगन तोडने जाती और पद गाती जाती थी । तो ठाकुरजी उसके पीछे-पीछे चलते और पद सुनते । पुजारीजी मंदिरमें देखते हैं कि ठाकुरजीका वस्त्र फटा हुआ है । उन्होंने पूछा—‘प्रभो ! आपके यहाँ मन्दिरमें रहते हुए, यह वस्त्र कैसे फट गया; ठाकुरजी बोले—‘भाई ! बैगनके कांटोंमें उलझकर फट गया ।’ पुजारीने पूछा—‘बैगनके खेतमें आप क्यों गये थे ?’ ठाकुरजीने बता दिया; मालिन ‘गीत-गोविन्द’ का धर गा रही थी,अतः सुनने चला गया । वह चलती तो मैं पीछे-पीछे डोलता था, जिससे कपड़ा फट गया । ऐसे स्वयं भगवान् भी सुनते है । क्या भगवान् के कोई रोग है, पाप है, जिसे दूर करनेके लिये वे सुनते हैं ? फिर भी वे सुनते हैं । भगवान् की कथा सुननेके अधिकारी भक्त हैं, ऐसे ही भक्तकी कथा सुननेके अधिकारी— भगवान् होते हैं ।

(शेष आगेके ब्लोगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे