।। श्रीहरिः ।।
सत्संगकी आवश्यकता-४

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
जहाँ भक्तोंकी चर्चा होती है, वहाँ भगवान् स्वयं पधारते हैं । नाभाजी महाराजने ‘भक्तमाल’ की रचना की । उसके ऊपर प्रियादासजी महाराजने कवितामें टीका की । ये स्वयं ठाकुरजीका सिंहासन लगाकर, उन्हें कथा सुनाते थे । उनकी कथामें अनेक धनिक लोग भी आते थे । धनिकोंके आनेसे खतरा होता है । कुछ चोरोंने देखा कि यहाँ इतने धनी आदमी आते हैं, हम भी चलें । और कुछ नहिं मिला तो चोरोंने ठाकुरजीकी प्रतिमा चोरी कर ली । प्रियादासजी महाराजने कहा—‘हमारे मुख्य श्रोता चले गये, अब कथा किसे सुनावें ? कथा बन्द । ठाकुरजी चले गये । अब भोग किसे लगावें ? भोजन बनाना बन्द ! भूखे रहे । कथा भी बन्द रही । उधर चोरोंके बड़ी खलबली मची । वे वापस लाकर ठाकुरजीको दे देते हैं । जब ठाकुरजी आ गये तो स्नान किया, ठाकुरजीको स्नान, श्रृंगार कराया । रसोई बनायी, भोग लगाया । उसके बाद कथा चली । जब कथा चली तो प्रसंग कहाँतक चला— ऐसा किसीको याद नहीं रहा, तब ठाकुरजी स्वयं बोल पड़े कि अमुक प्रसंगतक कथा हुई थी । इस प्रकार स्वयं श्रीभगवान भक्तोंकी कथा ध्यानपूर्वक सुनते हैं ।

सूर्योदय होता है तो अन्धकार दूर हो जाता है, पर वह बाहरी अन्धकार होता है; किन्तु जब सत्संगरूपी सूर्य उदय होता है तो उससे भीतर (अंतःकरण) में रहनेवाला अँधेरा दूर हो जाता है । पाप दूर हो जाते हैं । शंकाएँ दूर हो जाती हैं । अन्तकरणमें रहनेवाली तरह-तरहकी उलझनें सुलझ जाती हैं—

राम माया सतगुरु दया, साधु संग जब होय ।
तब प्राणी जाने कछु, रह्यो विषय रस भोय ॥

भगवान् और सन्तोंकी जब पूर्ण कृपा होती है तब सत्संगति मिलती है—

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेहि । चितवहिं राम कृपा करि जेहि ॥
(मानस, सुन्दर.७/४)

विभीषणने हनुमानजीसे कहा—

अब मोही भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥

‘हे हनुमानजी ! अब मुझे पक्का भरोसा हो गया कि भगवान् जरुर मिलेंगे । आप मिल गये, इससे मालूम होता है कि श्रीभगवान् ने मुझपर विशेष कृपा की है । भगवान् ने मनुष्य-शरीर दिया, यह कृपा की, उसके बाद सत्संग दिया —यह विशेष कृपा है । ऐसी कृपाका लाभ हमें तो लेना ही चाहिये । दूसरोंको भी जो लेना चाहें तो देना चाहिये—

भरा सत्संग का दरिया, नहा लो जिसका जी चाहे ।
हजारो रतन बेकीमत, भरे आला से आला हैं ॥
लगाकर ज्ञान का गोता, निकालो जिसका जी चाहे ।

सत्संगरूपी दरियामें बहुत बढ़िया-बढ़िया रत्न हैं । इसमें ज्ञानकी डुबकी जितनी लगायेंगे, उतनी ही विलक्षण बातें मिलेंगी । सुननेसे तो मिलती ही हैं, सुनानेसे भी मिलती हैं । सुनानेमें भी ऐसी-ऐसी विलक्षण बातें पैदा होती हैं कि बड़ा भारी लाभ होता है । ऐसी कई बातें हमें सुननेवालोंकी कृपासे मिलती हैं ।

संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ।
सूत दारा अरु लक्ष्मी पापी के भी होय ॥

भगवान् की कथा और सत्संग—ये दो दुर्लभ वस्तुएँ हैं । पुत्र- और धन तो पापी मनुष्यके भी प्रारब्धानुसार होते ही हैं । रावणका भी बहुत बड़ा राज्य था—यह कोई बड़ी बात नहीं । बड़ी बात तो यह है कि भगवान् का चिन्तन हो, स्मरण हो, चर्चा हो तथा भगवान् की तरफ लग जायँ । सन्तोंने भी माँगा है—

राम जी साधु संगत मोही दीजिये ।
वाँरो संगत दो राम जी पलभर भूल न होय ॥

‘महाराज ! सत्संगति दीजिये, जिससे आपको क्षणभर भी नहीं भूलूँ ।’

सज्जनो ! सत्संगसे जो लाभ होता है, वह साधनसे नहीं होता । साधन करके जो परमात्मतत्वको प्राप्त करना है, वह कमाकर धनी होनेके सामान है । किन्तु सत्संग सुनना तो गोदमें जाना सामान है । गोद चले जानेसे कमाया हुआ धन स्वतः मिल जाता है । सन्तोंने कितने वर्ष लगाये होंगे ? कितना साधन किया होगा ? कितनोंका संग किया होगा ? उस सबका सार आपको एक घण्टेमें मिल जाता है । गोद जानेमें क्या जोर आवे साहब ? आज कँगला और कल लखपति ! वह तो कमाये हुए धनका मालिक बन जाता है । सत्संगके द्वारा ऐसी-ऐसी चीजें मिलती हैं, जो बरसोंतक साधन करनेसे भी नहीं मिलतीं । इसलिए भाई ! सत्संग मिल जावे तो जरुर करना चाहिये । इससे मुफ्तमें कल्याण होता है, मुफ्तमें । कहा गया है —

जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड चेतन जीव जहाना ॥
मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ॥
सो जनाब सतसंग प्रभाऊ । लोकहुँ वेद न आन उपाऊ ॥
(मानस,बाल। ३/४—६)

और—

संत समागम करिये भाई, लोह पलट कंचन हो जाई ।
नानाविध वनराय कहीजे, भिन्न-भिन्न सब नाम धराई ॥
नौका रूप जानि सत्संगहि, या में सब मिल बैठो आई ।
और उपाय नहीं तिरने का, सुन्दर काढिहि राम दुहाई ॥

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhansudhasindhu/sarwopyogi/sarw43_615.htm