।। श्रीहरिः ।।

जिज्ञासाका विषय वास्तवमें जीव और जगत् है, परमात्मा नहीं । कारण कि जिज्ञासा अधूरी जानकारी (सन्देह) में होती है अर्थात् जिस विषयमें हम कुछ जानते है और कुछ नहीं जानते, वहाँ जिज्ञासा होती है । अतः जिस विषयको किंचिन्मात्र भी नहीं जानते, उसमें जिज्ञासा नहीं होती और जिस विषयको पूरी तरह जानते है, उसमें भी जिज्ञासा नहीं होती; क्योंकि उसका अनुभव होता है । परमात्माके विषयमें हम बिलकुल नहीं जानते; अतः परमात्मा जिज्ञासा या विचारका विषय नहीं है, प्रत्युत मान्यताका विषय है । जीव और संसारको हम पूरी तरह नहीं जानते; जैसे—मैं हूँ और संसार है—यह तो जानते हैं, पर मैं क्या हूँ और संसार क्या है—यह तत्वसे नहीं जानते । अतः जीव और संसार जिज्ञासाका विषय हैं ।

यद्यपि शास्त्रोंमें परमात्माको भी जिज्ञासाका विषय माना गया है—‘जगज्जीवपरात्मनाम्’, तथापि यह जिज्ञासाका विषय उन्हींके लिये है, जो वेदादिक शास्त्रोंपर और भक्तोंपर श्रद्धा-विश्वास रखते हों । वेदादिक शास्त्रोंमें और सन्तवाणीमें परमात्माका वर्णन किया गया है, अतः उस वर्णनको लेकर उनमें परमात्माकी जिज्ञासा होती है । तात्पर्य है कि परमात्माकी जिज्ञासा उनमें होती है, जो शास्त्र और संतको मानते हैं अर्थात् शास्त्रमें लिखा है, भक्तोंसे सुना है, पर अनुभव नहीं है—इसको लेकर जिज्ञासा होती है । जो वेदादिक शास्त्रोंको और भक्तोंको नहीं मानते, उनमें परमात्माकी जिज्ञासा नहीं होती । परन्तु जीव और जगत् की जिज्ञासा आस्तिक-नास्तिक सभीमें हो सकती है; क्योंकि मैं हूँ और जगत् है—इसका अनुभव सबको होता है । परमात्माका ऐसा अनुभव न होनेसे परमात्मा उनकी मान्यताका विषय होता है अर्थात् या तो वे परमात्माको मानते हैं अथवा नहीं मानते । इसलिए आस्तिक और नास्तिक— दोनों दर्शन पाये जाते हैं ।

जिज्ञासुमें ‘मैं जिज्ञासु हूँ’—ऐसा अहम् अर्थात् व्यक्तित्व रहता है, तबतक वह बातें तो सीख लेता है, पर उसको बोध नहीं होता । परन्तु सच्ची जिज्ञासा रहनेसे उसमें एक व्याकुलता पैदा होती है कि ‘मैंने इतना जान लिया, पर मेरेमें कोई फर्क नहीं पड़ा, कोई विलक्षणता नहीं आयी ! राग-द्वेष, हर्ष-शोक वही होते हैं, अनुकूलता-प्रतिकूलताका वही असर पडता है !’ ऐसी व्याकुलता होनेपर वह अहम् से सर्वथा विमुख हो जाता है । अहम् से सर्वथा विमुख होनेपर जिज्ञासु नहीं रहता, प्रत्युत शुद्ध जिज्ञासा रह जाती है और वह जिज्ञासा ज्ञान (बोध) में परिणत हो जाती है । ज्ञान होनेपर अहम् अर्थात प्रकृति तथा प्रकृतिके कार्यका सर्वथा आभाव हो जाता है और चेतन-स्वरुप ज्यों-का-त्यों रह जाता है अर्थात् प्राप्त हो जाता है । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ज्ञान जडका ही होता है, चेतनका नहीं । कारण कि चेतन तो ज्ञानस्वरुप ही है । अंतःकरणमें जडका महत्त्व होनेसे ही उसका अनुभव नहीं होता था । उसका अनुभव होनेपर अनुभवमात्र रह जाता है, अनुभव करनेवाला नहीं रहता; ज्ञानमात्र रह जाता है, ज्ञानी नहीं रहता ।
टिप्पणी—
जितना जानते है, उसीको पूरा मानकर जानकारीका अभिमान करनेसे मनुष्य नास्तिक बन जाता है; और उसमें सन्तोष न करके जितना जानते हैं, उसमें सन्तोष न करनेसे तथा जानकारीका अभाव खटकनेसे मनुष्य जिज्ञासु बन जाता है
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे(‘जिज्ञासा और बोध’, लेख नं।२७, पेज नं.५०, ज्ञानयोग)

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhansudhasindhu/ch27_50.htm