।। श्रीहरिः ।।
भगवान्
आज ही मिल सकते है

परमात्मप्राप्ति बहुत सुगम है । इतना सुगम दूसरा कोई काम नहीं है । परन्तु केवल परमात्माकी ही चाहना रहे, साथमें दूसरी कोई चाहना न रहे । कारण कि परमात्माके समान दूसरा कोई है ही नहीं । जैसे परमात्मा अनन्य हैं, ऐसे ही उनकी चाहना भी अनन्य होनी चाहिये । सांसारिक भोगोंके प्राप्त होनेमें तीन बातें होनी जरुरी हैं—इच्छा, उद्योग और प्रारब्ध । पहले तो सांसारिक वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छा होनी चाहिये, फिर उसकी प्राप्तिके लिये कर्म करना चाहिये । कर्म करनेपर भी उसकी प्राप्ति तब होगी, जब उसके मिलनेका प्रारब्ध होगा । अगर प्रारब्ध नहीं होगा तो इच्छा रखते हुए और उद्योग करते हुए भी वस्तु नहीं मिलेगी । इसलिए उद्योग तो करते हैं नफेके लिये, पर लग जाता है घाटा ! परन्तु परमात्माकी प्राप्ति इच्छामात्रसे होती है । इसमें उद्योग और प्रारब्धकी जरुरत नहीं है । परमात्माके मार्गमें घाटा कभी होता ही नहीं, नफा-ही-नफा होता है ।

एक परमात्माके सिवाय कोई भी चीज इच्छामात्रसे नहीं मिलती । कारण यह है कि मनुष्यशरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है । अपनी प्राप्तिका उद्देश्य रखकर ही भगवान् ने हमारेको मनुष्यशरीर दिया है । दूसरी बात, परमात्मा सब जगह हैं । सुईकी तीखी नोक टिक जाय, इतनी जगह भी भगवान् से खाली नहीं है । अतः उनकी प्राप्तिमें उद्योग और प्रारब्धका काम नहीं है । कर्मोंसे वह चीज मिलती है, जो नाशवान् होती है । अविनाशी परमात्मा कर्मोंसे नहीं मिलते । उनकी प्राप्ति उत्कट इच्छामात्रसे होती है ।

पुरुष हो या स्त्री हो, साधु हो या गृहस्थ हो, पढ़ा-लिखा हो या अपढ़ हो, बालक हो या जवान हो, कैसा ही क्यों न हो, वह इच्छामात्रसे परमात्माको प्राप्त कर सकता है । परमात्माके सिवाय न जीनेकी चाहना हो, न मरनेकी चाहना हो, न भोगोंकी चाहना हो, न संग्रहकी चाहना हो । वस्तुओंकी चाहना न होनेसे वस्तुओंका आभाव नहीं हो जायगा । जो हमारे प्रारब्धमें लिखा है, वह हमारेको मिलेगा ही । जो चीज हमारे भाग्यमें लिखी है, उसको दूसरा नहीं ले सकता—‘यदस्मदीयं न ही तत्परेषाम्’ । हमारेको आनेवाला बुखार दूसरेको कैसे आयेगा ? ऐसे ही हमारे प्रारब्धमें धन लिखा है तो जरुर आयेगा । परन्तु परमात्माकी प्राप्तिमें प्रारब्ध नहीं है ।

परमात्म किसी मूल्यके बदले नहीं मिलते । मूल्यसे वही वस्तु मिलती है, जो मूल्यसे छोटी होती है । बाजारमें किसी वस्तुके जितने रुपये लगते हैं, वह वस्तु उतने रुपयोंकी नहीं होती । हमारे पास ऐसी कोई वस्तु (क्रिया और पदार्थ) है ही नहीं, जिससे परमात्माको प्राप्त किया जा सके । वह परमात्मा अद्वितीय है, सदैव है, समर्थ है, सब समयमें है और सब जगह है । वह हमारा है और हमारेमें है—‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’ (गीता १५/१५), ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८/६१) । वह हमारेसे दूर नहीं है । हम चौरासी लाख योनियोमें चले जायँ तो भी भगवान् हमारे हृदयमें रहेंगे । स्वर्ग या नरकमें चले जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । पशु-पक्षी या वृक्ष बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । देवता बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापी, अन्यायी-से-अन्यायी बन जायँ तो भी भगवान् हमारे हृदयमें रहेंगे । ऐसे सबके हृदयमें रहनेवाले भगवान् की प्राप्ति क्या कठीन होगी ? पर जीनेकी इच्छा, मानकी इच्छा, बड़ाईकी इच्छा, सुखकी इच्छा, भोगकी इच्छा आदि दूसरी इच्छाएँ साथमें रहते हुए भगवान् नहीं मिलते । कारण कि भगवान् के समान तो भगवान् ही हैं । उनके समान दूसरा कोई था ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं, फिर वे कैसे मिलेंगे ? केवल भगवान् की चाहना होनेसे ही वे मिलेंगे । अविनाशी भगवान् के सामने नाशवान् की क्या कीमत है ? क्या नाशवान् क्रिया और पदार्थके द्वारा वे मिल सकते हैं ? नहीं मिल सकते । जब साधक भगवान् से मिले बिना नहीं रह सकता, तब भगवान् भी उससे मिले बिना नहीं रहते; क्योंकि भगवान् का स्वभाव हैं—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४/११) ‘जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ ।’

मान लें कि कोई मच्छर गरुड़जीसे मिलना चाहे और गरुड़जी भी उससे मिलना चाहें तो पहले मच्छर गरुड़जीके पास पहुँचेगा या गरुड़जी मच्छरके पास पहुँचेंगे ? गरुड़जीसे मिलनेमें मच्छरकी ताकत काम नहीं करेगी । इसमें तो गरुड़जीकी ताकत ही काम करेगी । इसी तरह परमात्मप्राप्तिकी इच्छा हो तो परमात्माकी ताकत ही काम करेगी । इसमें हमारी ताकत, हमारे कर्म, हमारा प्रारब्ध काम नहीं करेगा, प्रत्युत हमारी चाहना ही काम करेगी । हमारी चाहनाके सिवाय और किसी चीजकी आवश्यकता नहीं है ।

हम तो भगवान् के पास नहीं पहुँच सकते तो क्या भगवान् भी हमारे पास नहीं पहुँच सकते ? हम कितना ही जोर लगायें, पर भगवान् के पास नहीं पहुँच सकते । परन्तु भगवान् तो हमारे हृदयमें ही विराजमान हैं । द्रौपदीने भगवान् को ‘गोविन्द द्वारकावासिन्’ कहकर पुकारा तो भगवान् को द्वारका जाकर आना पड़ा । वह यहाँ कहती तो वे चट यहीं प्रकट हो जाते ! अगर हम ऐसा मानते हैं कि भगवान् अभी नहीं मिलेंगे तो वे नहीं मिलेंगे; क्योंकि हमने आड़ लगा दी ।

(शेष आगेके ब्लोगमें)
—‘मानवमात्रके कल्याणके लिये’ पुस्तकसे