।। श्रीहरिः ।।
भगवान् से अपनापन-१
वास्तवमें हम सब परमात्माके हैं और यह संसार भी परमात्माका है; परन्तु जब हम इस पर कब्जा करना चाहते हैं, इसको अपना मान लेते हैं, तब हम इससे बँध जाते हैं । हमारी यह एक धारणा रहती है कि हमारे अधिकारमें जितनी वस्तुएँ और व्यक्ति आ जाएँगे, उतने हम बड़े बन जाएँगे, उन वस्तुओं और व्यक्तिय़ोंके मालिक बन जाएँगे; परन्तु यह धारणा बिलकुल गलत है ।जिन रुपये, परिवार आदिको हम अपना मान लेते हैं, उनके हम पराधीन हो जाते हैं । परवश हो जाते हैं । वहम तो यह होता है कि हम उनके मालिक बन गये, पर बन जाते है उनके गुलाम यह बात खूब समझनेकी है, केवल सुनने-सुनानेकी नहीं है । आप स्वयं विचार करें । जिन मकानोंको आप अपने मकान मानते हैं, उन मकानोंकी ही आपको चिन्ता होती है । जिन मकानोंको आप अपना नहीं मानते, उनकी चिन्ता आपको नहीं होती । जिस परिवारको आप अपना मानते हैं, उसके बनने-बिगड़नेका आप पर असर होता है; और जिसको आप अपना नहीं मानते, उसके बनने-बिगड़नेका आप पर असर नहीं होता । ऐसे ही रुपये-पैसे, जमीन-जायदाद आदि वस्तुओंको आप अपनी मान लेते हैं, उनकी जिम्मेवारी, उनकी चिन्ता, उनके संचालन आदिका भार आप पर आ जाता है । जिनको आप अपना नहीं मानते, उनसे आपका बन्धन नहीं होता । इस युक्ति पर आप विचार करें ।

संसारमें जो थोड़े-से मकान है, थोड़े-से व्यक्ति हैं, थोड़े-से रुपये (हजार, लाख, करोड) हैं, उन मकानों, व्यक्तियों और रुपयोमें ही आप बंधे हुए हैं । जिनको आप अपना नहीं मानते, उन मकानों, व्यक्तियों और रुपयोंसे आप बिलकुल मुक्त हैं । अतः संसारसे आपकी ज्यादा मुक्ति तो है ही, थोड़ी-सी मुक्ति बाकी है ! मुक्ति नाम है छूटनेका । जिन रुपयों आदिको आप अपना नहीं मानते, उनसे आप बिलकुल मुक्त हैं । उनसे आप बिलकुल छूटे हुए हैं । जिनमें आपकी ममता नहीं है, उनके हानि-लाभ आदिका आपपर असर नहीं पडता अर्थात् उनमें आप सम रहते हैं । वह चाहे सोना हो, चाहे मिट्टी या पत्थर हो, उसके आने-जानेका आपपर कोई असर नहीं पडता‘समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ (गीता ६/८) । इसी प्रकार मान-अपमान और मित्र-शत्रुके पक्षमें भी आपकी समता रहती है, उनका असर आपपर नहीं पडता—‘मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।’ (गीता १४/२५) ।

वास्तवमें समता ही तत्व है । गीतामें कहा है—‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।’ (गीता १४/२५) अर्थात् जिनका मन समतामें स्थित है, उन्होंने इस जीवित अवथामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है । तात्पर्य है कि जिनके हृदयमें समता है है, उनके हृदयमें वस्तुओंके बनने-बिगड़नेपर, आने-जानेपर कोई विषमता नहीं होती, पक्षपात नहीं होता, राग-द्वेष नहीं होते, हर्ष-शोक नहीं होते । वस्तुओं और व्यक्तियोंके आने-जानेसे हमारेपर किञ्चिन्मात्र भी असर नहीं पड़े, तब तो हम संसारपर विजयी हो गये; परन्तु उनके आने-जानेका असर पडता है तो हम संसारसे पराजित हो गये, हार गये । संसार विजयी हो गया हमपर । हार किसीको भी अच्छी नहीं लगती, जीत सबको अच्छी लगती है । जिनका मन समतामें स्थित है, वे आज और अभी जीत सकते हैं, विजयी हो सकते है । गीता कहती है—‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥’ (५/११) अर्थात् जिन महापुरुषोंका अन्तःकरण निर्दोष और सम हो गया, वे परमात्मामें ही स्थित हें; क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है । कितनी विलक्षण बात है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे