।। श्रीहरिः ।।
भगवान् से अपनापन-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मतत्वको प्राप्त करना मनुष्यका खास ध्येय है । प्रत्येक भाई और बहन सब अवस्थाओंमें उस तत्वको प्राप्त कर सकते हैं; क्योंकि उस तत्वकी प्राप्तिके लिये ही यह मनुष्यशरीर मिला है । परन्तु हम नाशवान् चीजोंको अपनी मानकर फँस जाते हैं । ये चीजें पहले भी अपनी नहीं थी और पीछे भी अपनी नहीं रहेंगी—यह पक्की बात है । बीचमें उनको अपनी मानकर हम फँस जाते हैं । अगर हम उन चीजोंको अपनी न मानकर अच्छे-से-अच्छे, उत्तम-से-उत्तम व्यवहारमें लायें तो हम बंधनमें नहीं पड़ेंगे । उन वस्तुओंमें हमारा अपनापन जितना-जितना छूटता चला जायगा, उतनी-उतनी हमारी मुक्ति होती चली जायगी ।

प्रभुके साथ हमारा अपनापन सदासे है और सदा रहेगा । केवल हम ही भगवान् से विमुख हुए हैं, भगवान् हमसे विमुख नहीं हुए । हम भगवान् के हैं और भगवान् हमारे हैं—

अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ।
(मानस, अरण्य. ११/२१)

मीराबाई इतनी ऊँची हुई, इसका कारण उसका यह भाव था कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई ।’ केवल एक भगवान् ही मेरे हैं, दूसरा मेरा कोई नहीं है ।

सज्जनो ! हम भगवान् के हो जाते हैं तो भगवान् की सृष्टिके साथ उत्तम-से-उत्तम बर्ताव करना हमारे लिये आवश्यक हो जाता है । यह सब सृष्टि प्रभुकी है, ये सभी हमारे मालिकके हैं—ऐसा भाव रखोगे तो उनके साथ हमारा बर्ताव बड़ा अच्छा होगा । त्यागका, उनके हितका, सेवाका बर्ताव होगा । इससे व्यवहार तो शुद्ध होगा ही, हमारा परमार्थ भी सिद्ध हो जायगा, हम संसारसे मुक्त हो जायँगे । अतः हम भगवान् के होकर भगवान् का काम करें । ये सब प्राणी भगवान् के हैं, इन सबकी सेवा करें । अपना यह भाव बना लें—

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥

सब-के-सब सुखी हो जायँ, सब-के-सब निरोग हो जायँ, सबके जीवनमें मंगल-ही-मंगल हो, कभी किसीको दुःख न हो—ऐसा भाव हमारेमें हो जायगा तो दुनियामात्र सुखी होगी कि नहीं, इसका पता नहीं; परन्तु हम सुखी हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं ।

आप थोड़ी कृपा करें, इस बातको ध्यानपूर्वक समझें । भक्तिमार्गमें तो केवल भाव बदलना है कि मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे है; संसार मेरा नहीं है और मैं संसारका नहीं हूँ । गीतामें आया है—‘अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्’ (९/२२), ‘अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः’ (८/१४) । अनन्य होकर भगवान् का चिन्तन करनेका तात्पर्य यह है कि मैं केवल भगवान् का हूँ और केवल भगवान् मेरे हैं । ऐसा करनेवालेके लिये भगवान् कहते हैं—‘तस्याहं सुलभः’ अर्थात् जो अनन्यचेता होकर मेरा स्मरण करता है, उसको मैं सुलभतासे मिल जाता हूँ ।

सज्जनो ! जो व्यापार करना चाहता, उसको यदि कोई बढ़िया बता दे तो वह उसे छोडेगा नहीं; क्योंकि उसमें लाभ बहुत होता है । ऐसे ही जो अपनी आध्यात्मिक उन्नति चाहता है, उसके लिये बड़ी श्रेष्ठ और सीधी-सादी बात यह है कि वह मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं, यह मान ले । यह मान्यता अगर दृढ़ हो जाय तो आज ही पूर्ण हो सकती है । अगर इस मान्यताको मिटाओगे नहीं तो समय पाकर स्वतः ही पूर्णता हो जायगी । अतः इतनी कृपा करें, महेरबानी करें कि ‘मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं’—यह बात पक्की मान लें । सच्ची बात है, आपको धोखा नहीं देता हूँ । पहले आप भगवान् के थे, अन्तमें भगवान् के ही रहेंगे और अब भी भगवान् के ही हैं । आप मानें या न मानें, पर आप भगवान् के ही हैं इसमें संदेह नहीं—
‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर. ८६/४)
‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर. ११७/ २)
‘ममैवांशो जीवलोक (गीता १५/७)

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे