।। श्रीहरिः ।।
भगवान् से अपनापन-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)

‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’

(मानस,उत्तर. ८६/४)
‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी’

(मानस,उत्तर.११७/२)
‘ममैवांशो जीवलोके’
(गीता १५/७)

—इस प्रकार भगवान् और सन्त सब कहते हैं की यह जीव परमात्माका अंश है यद्यपि हम परमात्माके हैं ही, तथापि ‘हम परमात्माके हैं’ ऐसा जबतक नहीं मानेंगे, तबतक परमात्माके होते हुए भी लाभ नहीं ले सकेंगे । जबतक हम परमात्मासे विमुख रहेंगे, तबतक हमें शान्ति, प्रसन्नता नहीं मिलेगी, आनंद नहीं मिलेगा ।

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटी अघ नासहिं तबहीं ॥

भगवान् के सम्मुख होते ही करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जायँगे । अतः सज्जनो ! आप कृपा करके यह बात मान लो कि हम भगवान् के हैं, हम और किसीके नहीं हैं । यहाँ शंका हो सकती है कि हम और किसीके नहीं होंगे तो दुनियाका पालन-पोषण कैसे होगा ? माताएँ अपने बालकोंका पालन-पोषण कैसे करेंगी ? इसका समाधान है कि अपना मानकर पालन करनेकी महिमा नहीं है ।अपने बालकका पालन तो हरेक माता करती है, पर इसमें कोई बहादुरी नहीं है । दूसरा कोई ऐसा बालक है, जिससे हमारा न्याति-जातिका कोई सम्बन्ध नहीं है, जिस बेचारेके माँ-बाप नहीं रहे, उसका पालन करनेवाली माईके लिये लोग कहते हैं कि धन्य है यह ! अपना नहीं होनेपर भी अपने बालककी तरह उसका पालन किया जाय तो महिमा होगी और शान्ति मिलेगी तथा बालकपर भी बड़ा असर पड़ेगा ।

‘कल्याण’ के एक मासिक अंकमें बहुत पहले एक घटना छपी थी । एक गाँवकी बात है । वहाँ एक मुसलमानके घर बालक हुआ, पर बालककी माँ मर गयी । वह बेचारा बड़ा दुःखी हुआ । एक तो स्त्री मरनेका दुःख और दूसरा नन्हें-से बालकका पालन कैसे करूँ—इसका दुःख ! पासमें ही एक अहीर रहता था । उसका भी दो-चार दिनका बालक था । उसकी स्त्रीको पता लगा तो उसने अपने पतिसे कहा कि उस बालकको ले आओ, मैं पालन करुँगी । अहीर उस मुसलमान बालकको ले आया । अहीरकी स्त्रीने दोनों बालकोंका पालन किया । उनको अपना दूध पिलाती, स्नेहसे रखती, प्यार करती । उसके मनमें द्वैधीभाव नहीं था कि यह मेरा बालक है और यह दूसरेका बालक है । जब बालक बड़ा हो गया, कुछ पढ़नेलायक हो गया, तो उसने उस मुसलमानको बुलाकर कहा कि अब तुम अपने बच्चेको ले जाओ और पढाओ-लिखाओ, जैसी मर्जी आये, वैसा करो । वह उस बालकको ले गया और उसको पढाया-लिखाया । पढ़-लिखकर वह एक अस्पतालमें कम्पाउण्डर बन गया । उधर संयोगवश अहीरकी स्त्रीकी छाती कुछ कमजोर हो गयी और उसके भीतर घाव हो गया । इलाज करवानेके लिये वे अस्पतालमें डॉक्टरके पास पहुँचे । डॉक्टरने बीमारी देखकर कहा कि इसको खून चढ़ाया जाय तो यह ठीक हो जायगी । खून कौन दे ? परीक्षा की गयी । मुसलमानका वह लड़का, जो कम्पाउण्डर बना हुआ था, उसी अस्पतालमें था । दैवयोगसे उसका खून मिल गया । उस माईने तो उसको पहचाना नहीं, पर उस लडकेने उसको पहचान लिया कि यही मेरा पालन करनेवाली माँ है । बचपनमें उसका दूध पीकर पला था, इस कारण खूनमें एकता आ गयी थी । डॉक्टरने कहा, इसका खून चढ़ाया जा सकता है । उससे पूछा कि तुम खून दे सकते हो ? उसने कहा खून तो दूँगा, पर दो सौ रुपये लूँगा । अहीरने उसको दो सौ रुपये दे दिये । उसने आवश्यकतानुसार अपना खून दे दिया । वह खून उस माईको चढा दिया गया, जिससे उसका शरीर ठीक हो गया और वह अपने घर चली गयी ।

कुछ दिनोंके बाद वह लड़का अहीरके घर गया और हजार-दो हजार रुपये माँके चरणोमें भेंट करके बोला कि आप मेरी माँ हैं । मैं आपका बच्चा हूँ । आपने मेरा पालन किया है । ये रुपये आप ले लें । उसने मना किया तो कहा कि ये आपको लेने ही पड़ेंगे । उसने अस्पतालकी बात याद दिलाई कि खूनके दो सौ रुपये मैंने इसलिए लिये थे कि मुफ्तमें आप खून नहीं लेती और खून न लेनेसे आपका बचाव नहीं होता । यह खून तो वास्तवमें आपका ही है । आपके दूधसे ही मैं पला हूँ, इसलिए मेरा यह शरीर और सब कुछ आपका ही है । मेरे रुपये शुद्ध कमाईके हैं । आपकी कृपासे मैं लहसुन और प्याज भी नहीं खाता हूँ । अपवित्र, गन्दी चीजोंमें मेरी अरुचि हो गयी है । अतः ये रुपये आपको लेने ही पड़ेंगे । ऐसा कहकर उसने रुपये दे दिये । अहीरकी स्त्री बड़े शुद्ध भाववाली थी, जिससे उसके दूधका असर ऐसा हुआ कि वह लड़का मुसलमान होते हुए भी अपवित्र चीज नहीं खाता था ।

आप विचार करें । जितनी माताएँ हैं, सब अपने-अपने बच्चोंका पालन करती ही हैं । हम सबका पालन बहनों-माताओंने ही किया है । परन्तु उनकी कोई कथा नहीं सुनाता, कोई बात नहीं करता । अहीरकी स्त्रीकी बात आप और हम करते हैं । उसका हमपर असर पडता है कि कितनी विशेष दया थी उसके हृदयमें ! उसके मनमें यह भेद-भाव नहीं था कि दूसरेके बच्चेका मैं कैसे पालन करूँ ? इसलिए आज हमलोग उसका गुण गाते हैं कि कितनी श्रेष्ठ माँ थी, जिसने दूसरेके बालकका भी पालन किया और पालन करके उसके पिताको सौंप दिया ! अपने बच्चोंका पालन तो कुतिया भी करती है, इसमें क्या बड़ी बात है ?

चाहे तो अपने बालकोंका अपना न मानकर (ठाकुरजीका मानकर) पालन करो और चाहे जो अपने बालक नहीं हैं,उनका पालन करो तो बड़ा पुण्य होगा । परन्तु ममता करनेसे यह पुण्य खत्म हो जाता है । मैं अपने बच्चोंका पालन करूँ,अपने जनोंकी रक्षा करूँ—यह अपनापन ही आपके पुण्यका भक्षण कर जाता है । इसलिए सज्जनो ! आप कृपा करके अपने कुटुम्बको भगवान् का मानें । छोटे-बड़े जितने हैं, सब प्रभुके हैं । उनकी सेवा करें और प्रभुसे कहें कि हे नाथ ! हम आपके जनोंकी सेवा करते हैं यदि आप ऐसा करने लग जायँ तो भगवान् पर इसका अहसान हो जाय । भगवान् भी कहेंगे कि हाँ भाई, मेरे बालकोंका पालन किया । आप ममता करेंगे तो भगवान् पर कोई अहसान नहीं । अपने बच्चोंका पालन तो सब करते हैं । केवल यह भाव रखें कि ये हमारे नहीं हैं, ये ठाकुरजीके हैं । जीवन सफल हो जायगा सज्जनो !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे