।। श्रीहरिः ।।
पराधीनतासे रहित हो

साधकके लिये खास बात है—पराधीनतासे रहित होना । शरीर, रुपये, व्यक्ति, देश, काल आदिककी आवश्यकता अनुभव करना ही पराधीनता है । जिसके पास अधिक रुपये, विद्या, बुद्धि, बल आदि हैं, वह संसारकी अधिक सेवा कर सकता है—यह वहम हृदयसे बिलकुल उठा देना चाहिये । साधकके पास जितने रुपये, विद्या, शक्ति आदि हैं, उतनेसे ही वह संसारकी बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकता है । जो अपने पास नहीं है, उसे देनेकी जिम्मेवारी नहीं है । परमात्माकी प्राप्ति वस्तुसे नहीं, त्यागसे होती है ।

उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंकी आवश्यकता अनुभव करना और उनके आश्रयसे अपनी उन्नति मानना महान् भूल है । साधकको कभी स्वप्नमें भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका आश्रय नहीं लेना चाहिये । पासमें जो धन, जमीन, मकान, परिवार आदि हैं, उनके रहते हुए ही अन्तःकरणसे उनकी आवश्यकताका मूलोच्छेदन कर देना चाहिये । ऐसा करनेसे साधककी उन्नति स्वतःसिद्ध है ।

उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका आश्रय लेना, उनकी अधीनता स्वीकार करना योगमार्ग, ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग—तीनों ही मार्गोंमें महान् बाधक है । जीव स्वयं नित्य परिपूर्ण निर्विकार परमात्माका चेतन अंश होते हुए भी यदि उत्पत्ति-विनाशशील जड़ वस्तुओंकी आवश्यकताका अनुभव करता है, तो वह परमात्माको जान ही कैसे सकता है ? अतः धनादि जड़ वस्तुएँ हमारी हैं और हमारे लिये आवश्यक हैं—यह भाव साधकको मनसे ही उठा लेना चाहिये ।

मनुष्यके भीतर यह भाव रहता है कि जो वस्तु, परिस्थिति, योग्यता आदि अभी नहीं है, वह मिल जाय तो मेरी उन्नति हो जायगी । वह उत्पत्ति-विनाशशील जड़ वस्तुओंकी प्राप्तिमें ही अपनी उन्नति मानता है । जैसे, उसके पास धन नहीं है, तो धन कमाकर लखपति-करोड़पति बननेपर वह सोचता है कि मैंने बड़ी भारी उन्नति कर ली है, वह पढ़ा-लिखा नहीं है तो पढ़-लिखकर विद्वान बन जानेपर सोचता है कि मैंने बड़ी उन्नति कर ली, इत्यादि । वास्तवमें यह उन्नति नहीं है, अपितु महान् अवनति (पतन) है । जो वस्तु पहले नहीं थी, वह बादमें भी नहीं रहेगी । स्वयं नित्य-निरन्तर रहनेवाला होनेपर भी अनित्य वस्तुओंकी प्राप्तिमें अपनी उन्नति मानना अपने साथ महान् धोखा करना है । जो सदासे है और सदा रहेगा, उस अविनाशी परमात्माको प्राप्त करनेमें ही मनुष्यकी वास्तविक उन्नति है । जो वस्तु अभी नहीं है, उसे प्राप्त कर भी लेंगे तो वह कबतक हमारे साथ रहेगी । जो अभी नहीं है, वह अन्तमें भी ‘नहीं’ में ही परिणत होगी । ऐसी उत्पत्ति –विनाशशील वस्तुओंको प्राप्त करके अपनेमें बड़प्पनका अनुभव करना ही उनके अधीन (पराधीन) होना है ।

दूसरी खास बात यह है कि अपनेमें सद्गुण-सदाचारोंकी कमी दीखने पर भी साधक ऐसा भी न माने कि मुझमें सद्गुण-सदाचारोंका अभाव है । सद्गुण-सदाचार ‘सत्’ हैं और दुर्गुण-दुराचार ‘असत्’ है । ‘असत्’ की तो सत्ता नहीं होती और ‘सत्’ का कभी अभाव नहीं होता —‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।’ (गीता २/१६) । उत्पत्ति-विनाशशील असत् का संग करनेके कारण ही सत् प्रकट नहीं होता । अस्वाभाविक असत् (दुर्गुण-दुराचार) का त्याग कर दें, तो सत् (सद्गुण-सदाचार) स्वतःसिद्ध हैं । सत् से विमुख हुए है, उसका अभाव नहीं हुआ है । असत् (दुर्गुण-दुराचारों) का त्याग करनेका उपाय यह है कि साधक इन्हें अपनेमें कभी न माने । वास्तवमें ये हमारेमें हैं ही नहीं, रह सकते ही नहीं । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और प्राण भी पहले हमारे साथ नहीं थे और न ही आगे हमारे साथ रहेंगे । कारण कि ये सब उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तुएँ हैं और हम स्वयं अविनाशी परमात्माके अंश हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७), जड़ वस्तुएँ बदलती और आती-जाती हैं जबकि स्वयं (आत्मा) कभी नहीं बदलता और सदैव ज्यों-का-त्यों रहता है । केवल प्रकृतिके अंशको पकड़नेसे यह सर्वथा स्वाधीन होते हुए भी पराधीन हो जाता है और जन्म-मरणके बन्धनसे बँध जाता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—'साधकोंके प्रति' पुस्तकसे