।। श्रीहरिः ।।
पराधीनतासे रहित हो-२


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
गीतामें आया है—
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
(गीता १३/२१)

‘प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही प्रकृतिजन्य त्रिगुणात्मक पदार्थोंको भोगता है और इन गुणोंका संग ही इस जीवात्माके अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है ।’

तीसरी खास बात यह है कि आध्यात्मिक उन्नतिमें सांसारिक वस्तु, योग्यता आदिकी बिलकुल आवश्यकता नहीं है । धन, सम्पत्ति, वैभव, पद, अधिकार, विद्या आदिकी अधिकता होनेसे आध्यात्मिक उन्नति अधिक होगी और इनकी कमी होनेसे आध्यात्मिक उन्नति कम होगी—ऐसी बात बिलकुल नहीं है; क्योंकि सांसारिक वस्तु चाहे अधिक हो या कम, उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना है अर्थात् उसकी कामना और ममताका त्याग करना है । चाहे लाखों-करोड़ों रुपये हों, चाहें पाँच रुपये हों और चाहे कुछ भी न हो, भीतरसे उनकी कामनाका ही त्याग करना है । त्याग करनेमें सभी समान हैं ।
अमुक व्यक्तिने बहुत त्याग किया और अमुक व्यक्तिने थोड़ा त्याग किया तो इससे त्यागमें क्या फर्क पड़ा ? त्याग तो दोनोंका समान ही है । अधिकका त्याग करनेकी अपेक्षा कमका त्याग करनेमें सुगमता भी होगी । बोलने-बोलनेमें फर्क है पर न बोलनेमें क्या फर्क ? सोचने-सोचनेमें फर्क है पर न सोचनेमें क्या फर्क ? देखने-देखनेमें फर्क है, पर न देखनेमें क्या फर्क ? दो आदमी काम करें तो करनेमें फर्क होगा, पर न करनेमें क्या फर्क ? तात्पर्य यह कि सांसारिक वस्तुओंके रहते हुए तो फर्क है पर उनका त्याग करनेमें कोई फर्क नहीं । किसीके पास धन, जमीन मकान आदि अधिक हैं और किसीके पास ये कम हैं, पर इनसे रहित होनेमें सब बराबर हैं । जीनेमें कई फर्क हैं पर मरनेमें कोई फर्क नहीं, चाहें मनुष्य मरे या पशु-पक्षी । अतएव हमारे पास-धन-सम्पति कम है, विद्या कम है, योग्यता कम है, इसलिये हम पारमार्थिक उन्नति नहीं कर सकते—यह धारणा बिलकुल गलत है ।

जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद करने पर ही चिन्मयताकी प्राप्ति होती है । वास्तवमें चिन्मयता—(परमात्मतत्त्व-) की प्राप्ति सभीको स्वतः सिद्ध है पर जड़ता (उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं)-को महत्त्व देनेसे हम चिन्यमतासे विमुख हुए हैं । अतः जड़तासे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख होना है । हृदयमें धनादि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व अंकित होनेके कारण ही ऐसा भाव होता है कि हमारे पास बहुत धन है, इसलिये हम बड़े आदमी हैं अथवा हमारे पास कुछ नहीं है इसलिए हम छोटे हैं । वास्तवमें चाहें धनवान् हो या निर्धन, मनसे धनकी इच्छाका त्याग करने पर दोनों समान हैं । अतएव जैसी भी परिस्थिति, योग्यता आदि हमें मिली हुई है, उसीमें साधक परमात्मतत्त्वका अनुभव कर सकता है ।

मनुष्य-शरीर मिलनेके बाद मनुष्य सांसारिक पदार्थोंसे निराश हो सकता है, क्योंकि संसारकी कोई वस्तु किसीको बराबर मात्रामें और पूर्णरूपसे नहीं मिलती । परंतु सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व सभीको समानरूपसे और पूरे-के-पूरे मिलते हैं । इसलिये परमात्मतत्वकी प्राप्तिमें निराश होनेका कोई स्थान नहीं है । मनुष्य-शरीर मिल गया तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका अधिकार भी मिल गया ।
—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे