।। श्रीहरिः ।।

सत्संग निर्झर-२

( गत् ब्लॉगसे आगेका)
शरीरादि सांसारिक पदार्थोंको आजतक कोई नहीं रख सका । कई बड़े-बड़े तपस्वी हुए और उन्होंने उनके बड़े-बड़े वरदान प्राप्त किये पर शरीरादिको कोई रख नहीं सका । इन्हें कोई रख सकता ही नहीं । फिर इन्हें अपने पास रखनेका झूठा प्रयास करनेसे क्या लाभ ? शरीर, धन, जमीन, मकान, परिवार आदिको अपने पास बनाये रखनेका प्रयास करना अँधेरा ढोनेके समान ही है । अँधेरेको ढोकर, उसे उठाकर क्या बाहर फेंका जा सकता है ? और यदि कोई दीपक लेकर अँधेरेको देखना चाहे तो क्या देख सकता है ? इसी प्रकार संसारको देखने (जानने) का प्रयास करें तो मिलेगा कुछ नहीं; क्योंकि असत् संसारकी स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं । केवल सत् परमात्मतत्वकी सत्तासे ही वह सत्तावान् दीख रहा है ।

साधक गुण और दोष दोनोंसे अपना सम्बन्ध न मानें तो गुणोंका अभिमान नहीं रहेगा और दोष रहेंगे ही नहीं । स्वयंकी स्थिति गुणदोषसे रहित है । इसलिये कहा गया है—

सुनहुँ तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक ।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥
(मानस ७/४१)
गुणदोषदृर्शिदोषो गुणस्तूभयवर्जितः ॥
(श्रीमद्भा. ११/१९/४५)

‘गुणों और दोषोंपर दृष्टि जाना अर्थात् उनसे अपना सम्बन्ध मानना ही सबसे बड़ा दोष है और उनपर दृष्टि न जाकर अपने निर्विकार स्वरुपमें स्थित रहना ही सबसे बड़ा गुण है ।’

अपनेमें गुणोंको देखनेसे उनके साथ अभिमान आदि दोष आयँगे ही । कारण कि गुणोंकी महिमा दोषोंके कारण ही होती है । जैसे धनवानोंकी महिमा निर्धनोंके कारण ही है, धनवानोंके कारण नहीं; विद्वानोंकी महिमा मूर्खोंके कारण ही है, विद्वानोंके कारण नहीं; वक्ताकी महिमा श्रोताओंके कारण ही है, वक्ताओंके कारण नहीं । छोटी वस्तु रहनेके कारण ही बड़ी वस्तुकी महिमा होती है । यदि छोटी वस्तु न रहे तो बड़ी वस्तु कैसे देखनेमें आयेगी ?

संसारके भोग जहरके लड्डूके समान हैं । मनुष्य लड्डूको नहीं छोडता तो जहर मनुष्यको नहीं छोडता । जहरसे बचनेके लिये लड्डूका त्याग करना ही पड़ेगा । लड्डू भी खालें और जहर भी न चढ़े, ऐसा होगा नहीं । यदि यह पता लग जाय कि लड्डूमें जहर है तो मीठा लगनेपर भी उसे कोई खायेगा नहीं । यदि कोई खाता है तो इससे यही सिद्ध होता है कि लड्डूमें जहर केवल सुना हुआ है, माना हुआ नहीं है । कहा भी है—

करनी बिन कथनी कथे, अज्ञानी दिन रात ।
कूकर ज्यों भूँकत फिरै, सुनी सुनायी बात ॥


—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे