।। श्रीहरिः ।।

संसारमें रहनेकी विद्या-१


मनुष्य काम करनेके लिये किसी कार्यालय-(आफिस-)में जाता है तो वह बड़ी तत्परता और उत्साहसे उस कार्यालयका काम करता है और उस कामके लिये उसे वेतन मिलता है । काम कार्यालयके लिये होता है और वेतन अपने लिये । इसी प्रकार संसारमें आकर मनुष्यको केवल संसारके लिये ही काम करना है, अपने लिये नहीं । सबका हित कैसे हो ? सबका भला कैसे हो ? सबको सुख कैसे मिले ? सबको आराम कैसे मिले ? इस भावसे केवल संसारके लिये ही काम करना है । जैसे कार्यालयमें रखी हुई वस्तु कार्यालयके कामके लिये ही होती है, अपने लिये नहीं, वैसे ही संसारकी सब वस्तुएँ संसारके लिये ही हैं, अपने लिये नहीं । शरीर, धन, जमीन, मकान आदि सब वस्तुएँ संसारसे ही मिली हैं और अन्तमें इन्हें संसारको ही लौटाकर जाना है । अतः संसारसे मिली हुई वस्तुओंको संसारकी ही मानकर उसीकी सेवामें लगा देना है । वे वस्तुएँ न तो अपनी हैं और न अपने लिये ही हैं । इसलिये अपने लिये कुछ करना ही नहीं है । अपने लिये कुछ न करनेपर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और परमात्माके साथ अपने नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जाता है । इसीका नाम ‘योग’ है । कर्म संसारके लिये होता है और योग अपने लिये । यह योग ही मानो वेतन है ।

अपने लिये कुछ करना है ही नहीं और अपने लिये कोई वस्तु है ही नहीं—ऐसा अनुभव होते ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । यही कर्मयोग है । इस विषयमें भगवान् ने कहा है—


नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥

(गीता २/४०)

‘इस कर्मयोगमें उपक्रम अर्थात् आरम्भमात्रका भी नाश नहीं होता और इसका उलटा फल भी नहीं होता । इस कर्मयोगरूप धर्मका थोडा-सा भी अनुष्ठान जन्म-मृत्युरूप महान भयसे रक्षा कर लेता है ।’


कार्यालयके समान इस संसारमें आकर अपनी ड्यूटी पूरी कर देनी है, अपने कर्तव्यका निष्कामभावपूर्वक सांगोपांगरीतिसे पालन कर देना है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे