।। श्रीहरिः ।।

संसारमें रहनेकी विद्या-२

कर्मयोगका स्वरुप यह है—

कर्मण्येवाधिकारस्ते

मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्

मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

(गीता २/४७)


‘तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कदापि नहीं । इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत बन तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ।’

कामना-आसक्तिसे रहित होकर कर्म करनेपर संसारके सम्बन्धका त्याग हो जाता है और त्यागसे तत्काल शान्ति होती है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२/१२) । जितनी भी अशान्ति है, वह सब नश्वर संसारके सम्बन्धसे ही है । नाशवान् वस्तुओंसे जितना अधिक सम्बन्ध अर्थात् अपनापन जोडेंगे, उतनी ही अधिक अशान्ति होगी । संसारसे सम्बन्ध न जोड़ें तो अशान्ति हो ही नहीं सकती । इस प्रकार शान्ति तो स्वतःसिद्ध है और अशान्ति बनावटी अर्थात् खुद अपनी बनायी हुई है ।

संसारकी किसी भी वस्तुसे मनुष्यका सम्बन्ध नहीं है । समय समाप्त होते ही चट यहाँसे चल देना है । एक दिन सब वस्तुओंको ज्यों-का-त्यों छोडकर जाना पड़ेगा । सब-की-सब वस्तुएँ यहीं पड़ी रह जायँगी । यह शरीर भी यहीं रह जायगा । इसलिये जबतक संसारमें रहना है, तबतक निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवा करनी है । जब जायँगे, तब साथ कुछ ले नहीं जायँगे । बिलकुल कार्यालयके समान संसारमें काम (सेवा) करनेके लिये आये हैं ।

शंका—ऊपर कही बातें तो बिलकुल ठीक हैं पर ये बातें सदा याद नहीं रहतीं ।

समाधान—ये बातें याद करनेकी है ही नहीं । याद करनेकी बात तो भगवान् का नाम है, उनका स्वरुप है, उनकी लीला इत्यादि है । उपर्युक्त बातें तो बिलकुल समझनेकी हैं । जैसे, अभी हम अयोध्यामें हैं तो ‘हम अयोध्यामें हैं; हम अयोध्यामें हैं’—ऐसा जप नहीं करना पडता; क्योंकि यह याद करनेकी बात ही नहीं है । ऐसे ही किसी व्यक्तिकी एक कार्यालयमें नियुक्ति हो जाय और वहाँ वह काम करना आरम्भ कर दे तो उसे ‘यह कार्यालय मेरा नहीं है’—ऐसा याद नहीं करना पडता; कारण कि इसमें किञ्चित भी याद करनेकी बात नहीं है । यह तो केवल स्वीकृति या अस्वीकृतिकी बात है । ‘हम अयोध्यामें हैं’—इसे स्वीकार कर लिया । ‘कार्यालय मेरा है’—इसे स्वीकार नहीं किया । बस, इतनी ही बात है । ‘कार्यालय मेरा नहीं है, वहाँकी वस्तुएँ मेरी नहीं हैं’—यह बात आरम्भसे जँच गयी, भीतर बैठ गयी । ऐसे ही संसारकी कोई भी वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है—इस वास्तविक बातको दृढतासे भीतर बैठा लें ।

‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhkonkeprati/ch3_8.htm