।। श्रीहरिः ।।
लक्ष्यके प्रति सजग रहो-१

साधनमें खास बात है—अपने लक्ष्यका निर्णय करना की वास्तवमें मैं क्या चाहता हूँ । साधक जप, ध्यान, भजन, कीर्तन आदि कुछ भी करता रहे, पर जबतक वह अपने लक्ष्यका निर्णय नहीं कर लेता, तबतक उसकी वास्तविक साधना आरम्भ नहीं होती । लक्ष्यका निर्णय हो जानेपर साधक लक्ष्यको प्राप्त किये बिना, लक्ष्यके सिवाय दूसरी जगह ठहर ही नहीं सकता । लक्ष्यका निर्णय जितना दृढ़ होगा, उतनी ही शीघ्रतासे उसकी प्राप्ति होगी । उसके निर्णयमें जितनी ढिलाई होगी, उसकी प्राप्ति भी उतनी देरीसे होगी । इसलिये साधकको सबसे पहले गम्भीरतापूर्वक यह विचार करना है कि भगवान् ने मुझे मनुष्य क्यों और किसलिये बनाया ? गहरा विचार करनेपर पता लगता है कि किसी बहुत बड़े प्रयोजनकी सिद्धिके लिये ही यह मनुष्य-शरीर मिला है । सांसारिक पदार्थोंके भोग और संग्रहके लिये मनुष्य-शरीर नहीं मिल है । सुखभोग तो पशु-पक्षी आदि मानवेतर योनियोमें भी मिल सकता है । मनुष्य-शरीर तो उस सर्वोपरि तत्वको प्राप्त करनेके लिये मिला है । इसे प्राप्त करनेपर कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता । इस विषयमें गीताका बहुत सुन्दर श्लोक है—


यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखन गुरुणापि विचाल्यते ॥
(६/२२)

‘जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और जिसमें स्थित होनेपर बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं होता ।’

—ऐसी स्थितिको प्राप्त करना ही मनुष्य-जीवनका खास उद्देश्य है । इस स्थितिको प्राप्त किये बिना जो सन्तोष करता है, वह गलती करता है । जबतक कुछ भी करने, जानने और पानेकी इच्छा रहति है, तबतक साधकको यही समझना चाहिये कि वास्तवमें मैं जो चाहता हूँ, वह (वास्तविक तत्व) प्राप्त नहीं हुआ ।

जैसे बदरीनारायण जाते समय मनुष्य रास्तेमें किसी जगह ठहरता है तो वहाँ भोजन कर लेता है, सो लेता है और अन्य आवश्यक काम कर लेता है, पर वहाँ अपना डेरा नहीं लगा लेता । जगह अच्छी है, जलवायु भी अच्छी है, सुविधा भी है—ऐसा विचार करके वह वहाँ रह नहीं जाता । यदि रह जाता है, तो वास्तवमें उसे बदरीनारायण जाना ही नहीं है । इसी प्रकार संसारकी जितनी भी अवस्थाएँ हैं, वे सब रास्तेकी हैं । साधक उनमेंसे कहीं भी ठहर नहीं सकता, अटक नहीं सकता । उसे तो अपने एकमात्र लक्ष्य परमात्माकी ओर जाना है । जहाँ कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता, साधकको तो वहाँ पहुँचना है ।

—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
(शेष आगेके ब्लॉगमें)