।। श्रीहरिः ।।

लक्ष्यके प्रति सजग रहो-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)

सच्चा साधक लक्ष्यको प्राप्त किये बिना चैन-आरामसे नहीं बैठ सकता । संसारमें धन मिल गया, तो क्या हो गया ? मान-बड़ाई मिल गयी, तो क्या हो गया ? सुख-आराम मिल गया, तो क्या हो गया ? कारण कि ये सांसारिक धन, मान, बड़ाई, सुख-आराम आदि सबसे बढ़कर नहीं हैं । सबसे बढ़कर जो वस्तु है, वह नहीं मिली, तो क्या मिला ? अर्थात् कुछ नहीं मिला । आरामसे खा लिया, पी लिया, सो लिया—यह सब पशुओंके ही योग्य है, विवेकी मनुष्यके योग्य नहीं । मनुष्य-शरीरकी महिमा इसी बातको लेकर है कि यह सबसे अधिक उन्नत हो सकता है । मनुष्य-शरीर देवताओंके लिये भी दुर्लभ है । देवताओंके पास भोगोंकी भरमार है पर वे भी मनुष्य-शरीरकी प्राप्ति चाहते हैं ।

सांसारिक भोग मनुष्यको सुखी नहीं कर सकते । मुख्य कारण यह है कि मनुष्य स्वयं तो नित्य-निरन्तर रहनेवाला है, पर भोग नित्य-निरन्तर रहनेवाले नहीं हैं । ऐसे भोगोंको हम कबतक अपने साथ रखेंगे ? भोग कबतक टिके रहेंगे ? उनसे कितना सुख-संतोष मिलेगा ? इस ओर ध्यान न रहनेसे मनुष्य बेपरवाह रहता है । चाहे लाखों-करोड़ों रुपये मिल जायँ, फिर भी तृप्ति नहीं होगी । ज्यों-ज्यों अधिक रुपये मिलेंगे, त्यों-ही-त्यों तृष्णा अधिक बढ़ेगी । तृष्णा अधिक बढनेपर झूठ, कपट, चोरी, बेईमानी, ठगी, विश्वासघात आदि अनेक दोष आते जायँगे, जिससे और अधिक पतन होगा । बिलकुल सही बात है । नाशवान् पदार्थोंको सदा अपने साथ नहीं रख सकते और सदा उनके साथ नहीं रह सकते । एक दिन सब छोड़ना ही पड़ेगा । अतः बिगडने और बिछुडनेवाली वस्तुओंको लेकर कौन-सा बड़ा काम किया । निर्वाहमात्रका प्रबन्ध तो भगवान् की ओरसे जीवमात्रके लिये ही है; अतः इसके लिये चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं । आवश्यकता वास्तविक तत्वको प्राप्त करनेकी ही है । उसकी प्राप्तिमें सांसारिक भोग और संग्रहकी कामना ही महान् बाधक है । वास्तविक तत्वको प्राप्त किये बिना चैनसे रहना बड़े ही दुःखकी बात है । मनुष्य कभी धन चाहता है, कभी मान-बड़ाई चाहता है, कभी निरोगता चाहता है, कभी आराम चाहता है पर वास्तवमें यह उसकी चाह नहीं है । अतः मुझे क्या चाहिये—इसका निर्णय करनेकी बहुत अधिक आवश्यकता है । लक्ष्यका निर्णय होनेपर फिर उसकी विस्मृति (भूल) नहीं होती । जिसकी विस्मृति होती है, वह लक्ष्य नहीं है ।

जैसा कि पहले बताया गया, लक्ष्य वह है, जिसकी प्राप्तिके बाद कुछ भी करना, जानना और पाना शेष न रहे । इसीको तत्त्वप्राप्ति, भगवत्प्राप्ति, भगवत्प्रेम, भगवद्दर्शन आदि जो चाहता है, वही उसे मिल जाता है ।
—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhkonkeprati/ch4_11.htm