।। श्रीहरिः ।।

सत्यकी खोज-१


शास्त्रोंमें लिखा है कि मनुष्यशरीर कर्मप्रधान है । जब मनुष्यके भीतर कुछ पानेकी इच्छा होती है, तब उसकी कर्म करनेमें प्रवृत्ति होती है । कर्मके दो प्रकार हैं—कर्त्तव्य और अकर्तव्य । निष्कामभावसे कर्म करना ‘कर्तव्य’ है और सकामभावसे कर्म करना ‘अकर्तव्य’ है । अकर्तव्यका मूल कारण है—संयोगजन्य सुखकी कामना । अपने सुखकी कामना मिटने पर अकर्तव्य नहीं होता । अकर्तव्य न होने पर कर्तव्यका पालन अपने-आप होता है । जो साधन अपने-आप होता है, वह असली होता है और जो साधन किया जाता है, वह नकली होता है ।


मनुष्यमें यदि कोई कामना पैदा हो जाय तो वह पूरी होगी ही—ऐसा कोई नियम नहीं है । कामना पूरी होती भी है और नहीं भी होती । सब कामनाएँ आज तक किसी एक भी व्यक्तिकी पूरी नहीं हुई और पूरी हो सकती भी नहीं । अगर कामना पैदा तो हो जाय, पर पूरी न हो तो बड़ा दुख होता है ! परन्तु मनुष्यकी दशा यह है कि वह कामनाकी अपूर्तिसे दु:खी भी होता रहता है और कामना भी करता रहता है ! परिणाम यह होता है कि न तो सब कामनाएँ पूरी होती हैं और न दु:ख ही मिटता है । इसलिये अगर किसीको दु:खसे बचना हो तो इसका उपाय है—कामना का त्याग । यहाँ शंका हो सकती है कि अगर हम कोई भी कामना न करें तो फिर कर्म करें ही क्यों ? इसका समाधान है कि कर्म फल प्राप्तिके लिये भी किया जाता है और फलकी कामनाका त्याग करनेके लिये भी किया जाता है । जो कर्म बन्धनसे मुक्त होना चाहता है, वह फलेच्छाका त्याग करनेके लिये कर्म करता है । यह भी शंका हो सकती है कि अगर हम कोई कामना न करें तो हमारा जीवन कैसे चलेगा ? जीवन-निर्वाहके लिये तो अन्न-जल आदि चाहिये ? इसका समाधान है कि अन्न-जल लेते-लेते इतने वर्ष बीत गये, फिर भी हमारी भूख-प्यास तो नहीं मिटी ! अन्न-जलके बिना हम मर जायँगे तो क्या अन्न-जल लेते-लेते नहीं मरेंगे ? मरना तो पड़ेगा ही । वास्तवमें हमारा जीवन कामना-पूर्तिके अधीन नहीं है । क्या जन्म लेनेके बाद माँ का दूध कामना करनेसे मिला था ? जीवन-निर्वाह कामना करनेसे नहीं होता, प्रत्युत किसी विधानसे होता है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे