।। श्रीहरिः ।।

सत्यकी खोज-२


(गत् ब्लॉगसे आगेका)

सब कामनाएँ कभी किसीकी पूरी नहीं होतीं । कुछ कामनाएँ पूरी होती हैं और कुछ पूरी नहीं होतीं—यह सबका अनुभव है । इसमें विचार करना चाहिये कि कामना पूरी होने अथवा न होनेकी स्थितिमें क्या हमारेमें कोई फर्क पड़ता है ? क्या कामना पूरी न होने पर हम नहीं रहते ? विचार करनेसे अनुभव होगा कि कामना पूरी हो अथवा न हो, हमारी सत्ता-ज्यों-की-त्यों रहती है । कामना उत्पन्न होनेसे हम जैसे थे, कामनाकी ‘पूर्ति’ होने पर भी हम वैसे ही रहते हैं, कामनाकी ‘अपूर्ति’ होने पर भी हम वैसे ही रहते हैं और कामनाकी ‘निवृत्ति’ होने पर भी हम वैसे ही रहते हैं । इस बातसे एक बल मिलता है कि यदि कामनाकी अपूर्तिसे हमारेमें कोई फर्क नहीं पड़ता तो फिर हम कामना करके क्यों दु:ख पायें !

मनुष्यके सामने दो ही बातें हैं—या तो वह अपनी सभी कामनाएँ पूरी कर ले अथवा उनका त्याग कर दे । वह कामनाओंको पूरी तो कर सकता ही नहीं, फिर उनको छोड़नेमें किस बातका भय ! जो हम कर सकते हैं, उनको तो करते नहीं और जो हम नहीं कर सकते, उसको करना चाहते हैं—इसी प्रमादसे हम दु:ख पा रहे हैं ।

जो कामनाओंको छोड़ना चाहता है, उसके लिये सबसे पहले यह मानना जरूरी है कि ‘संसारमें मेरा कुछ नहीं है’ । जबतक शरीरको अथवा किसी भी वस्तुको अपना मानेंगे, तबतक कामनाका सर्वथा त्याग कठिन है । अनन्त ब्रह्माण्डोंमें ऐसी एक भी वस्तु नहीं है, जो मेरी और मेरे लिये हो—इस वास्तविकताको स्वीकार करनेसे कामना स्वत: मिट जाती है; क्योंकि जब मेरा और मेरे लिये कुछ है ही नहीं तो फिर हम किसकी कामना करें और क्यों करें ? कामनाओंका सर्वथा त्याग तब होता है, जब मनुष्यका शरीरसे संबंध (मैं-मेरापन) नहीं रहता । अत: कामनाओंके सर्वथा त्यागका तात्पर्य हुआ—जीते-जी मर जाना । जैसे, मनुष्य मर जाता है तो वह किसी भी वस्तुको अपनी नहीं कहता और कुछ भी नहीं चाहता । उस पर अनुकूलता-प्रतिकूलता, मान-सम्मान, निन्दा-स्तुति आदिका प्रभाव नहीं पड़ता, ऐसे ही कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर मनुष्यपर अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिका प्रभाव तो पड़ता नहीं और जीता रहता है ! इसलिये महाराज जनक देहके रहते हुए भी ‘विदेह’ कहलाते थे । जो जीते-जी मर जाता है, वह अमर हो जाता है । इसलिये मनुष्य अगर सर्वथा कामना-रहित हो जाय तो वह जीते-जी अमर हो जायगा

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिता: ।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्रुते ॥
(कठ.२/३/१४; बृहदा. ४/४/७)


‘साधकके हृदयमें स्थित सम्पूर्ण कामनाएँ जब समूल नष्ट हो जाती हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है और यहीं (मनुष्यशरीरमें ही) ब्रह्मका भली भाँति अनुभव कर लेता है ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे