।। श्रीहरिः ।।

सत्यकी खोज-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)

जब साधकके भीतर कामना-पूर्तिका महत्त्व नहीं रहता, तब उसके द्वारा सभी कर्म स्वत: निष्कामभावसे होने लगते हैं और वह कर्म-बन्धनसे छूट जाता है । सुखकी कामना न रहनेसे उसके सभी दोष नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि सम्पूर्ण दोष सुखकी कामनासे ही पैदा होते हैं । साधकका जीवन निर्दोष होना चाहिये । सदोष जीवनवाला साधक नहीं हो सकता ।

अब यह विचार करें कि दोष किसमें रहते हैं ? संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं— सत् और असत् । दोष न तो सत् (अविनाशी) में रहते हैं और न असत् (विनाशी) में ही रहते हैं । सत् में दोष नहीं रहते; क्योंकि सत् का कभी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २/१६) । कामना अभावसे पैदा होती है । जिसका कभी अभाव नहीं होता, उसमें कोई कामना हो ही नहीं सकती और जिसमें कामना नहीं होती, उसमें कोई दोष आ ही नहीं सकता । असत् में भी दोष नहीं रहता, क्योंकि असत् की सत्ता ही नहीं है—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २/१६) । जिसकी सत्ता ही नहीं है, उसमें (बिना आधारके) दोष कहाँ रहेगा ? असत् की सत्ता न होना ही सबसे बड़ा दोष है, जिसमें दूसरा दोष आनेकी सम्भावना ही नहीं है । सत् और असत् के सम्बन्धमें भी दोष नहीं मान सकते; क्योंकि जैसे प्रकाश और अन्धकारका सम्बन्ध असम्भव है, ऐसे ही सत् और असत् का सम्बन्ध भी असम्भव है । तो फिर दोष किसमें हैं ? दोष उसमें हैं, जिसमें कामना है । कारण कि सम्पूर्ण दोष कामनासे ही पैदा होते हैं- ‘काम एष.......’ (गीता ३/३७) । जब मनुष्य वस्तुके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब लोभ पैदा होता है । जब वह व्यक्तिके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब मोह पैदा होता है । जब वह अवस्थाके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब परिच्छिन्नता पैदा होती है । जैसे एक बीजमें मीलोंतकका जंगल विद्यमान है, ऐसे ही एक दोषमें सम्पूर्ण दोष विद्यमान हैं । ऐसा कोई दोष नहीं है,जिसमें सब दोष न हों । इसलिए जबतक एक भी दोष है, तबतक साधकको संतोष नहीं करना चाहिये । आंशिक दोष और आंशिक निर्दोषता (गुण) तो प्रत्येक मनुष्यमें रहते हैं । कोई भी मनुष्य सब प्रकारसे, सब समय और सबके लिये दोषी हो सकता ही नहीं; क्योंकि मूलमें वह परमात्माका ही अंश है* अगर साधक सर्वथा निर्दोष होना चाहता है तो उसको संयोगजन्य सुखकी कामनाका सर्वथा त्याग करना होगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
टिपण्णी—* ‘ईश्वर अंस जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥