।। श्रीहरिः ।।

सत्यकी खोज-४


(गत् ब्लॉगसे आगेका)

अब विचार यह करना है कि कामना किसमें रहती है ? कई लोग ऐसा मानते है कि कामना मनमें रहती है । परन्तु वास्तवमें कामना मनमें रहती नहीं है, प्रत्युत मनमें आती है—‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्’ (गीता २/५५) । मन एक करण (अंतःकरण) है । करणमें कोई कामना नहीं होती । क्या कलममें लिखनेकी कामना होती है ? मोटरमें चलनेकी कामना होती है ? नहीं होती । अगर ऐसा मानें कि कामना मनमें होती है तो फिर कामना-अपूर्तिका दुःख भी मनको ही होना चाहिये । परन्तु कामना-अपूर्तिका दुःख कर्ता-(स्वयं-) को होता है । अतः वास्तवमें कामना करण (मन-बुद्धि-) में नहीं होती, प्रत्युत कर्तामें होती है । करण कर्ताके अधीन होता है । परन्तु कामनाकी पूर्ति और अपूर्तिसे होनेवाले सुख-दुःखरूप द्वन्दमें उलझे रहनेके कारण मनुष्यका विवेक काम नहीं करता और वह परवश होकर कामनाको मनमें होनेवाली मान लेता है ।

अब यह विचार करें कि कर्ता कौन है ? अगर मन कर्ता होता तो वह बुद्धिके अधीन होकर कार्य नहीं करता । परन्तु यह सबका अनुभव है कि बुद्धि जिस कामको न करनेका निश्चय करती है, मन उसको करनेकी कामना छोड़ देता है और बुद्धि जिसको करनेका निश्चय करती है, मन उसको करनेकी कामना करने लगता है । परन्तु बुद्धि भी स्वतन्त्र कर्ता नहीं है; क्योंकि बुद्धि भी एक करण (अंतःकरण) है । जब मनुष्य किसी कामनाकी पूर्तिका सुख लेता है, तभी बुद्धि उस कामको करनेका निर्णय लेती है । परन्तु सुखभोगका परिणाम दुःख होता है—ऐसा समझनेवाला मनुष्य कामना-पूर्तिके सुखका त्याग कर देता है तो बुद्धि सुखभोगमें प्रवृत्तिका निर्णय नहीं लेती, प्रत्युत उसका त्याग कर देती है । करण कर्ताके अधीन होता है —‘साधकतमं करणम्’ (पाणि. अ.१/४/४२) । परन्तु कर्ता स्वतन्त्र होता है—‘स्वतन्त्रः कर्ता (पाणि. अ. १/४/५४) । स्वरुप भी कर्ता नहीं है; क्योंकि अगर स्वरुपमें कर्तापन होता तो वह कभी मिटता नहीं । इसलिये गीतामें भगवान् ने स्वरुपमें कर्तापनका निषेध किया है—‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/३१) । वास्तवमें जो भोक्ता (सुखी-दुःखी) होता है, वही कर्ता होता है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे