।। श्रीहरिः ।।

सत्यकी खोज-६


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
जब योग, ज्ञान और प्रेमका अभिमान (भोग) नहीं रहता, तब साधक मुक्त हो जाता है । मुक्त होनेपर भी साधकने जिस मत (प्रणाली) को मुख्यता दी है, उसका एक सूक्ष्म संस्कार रह जाता है, जिसको अभिमानशून्य अहम् कहते हैं । जैसे भुने चने खेतीके काम तो नहीं आते, पर खानेके काम आते हैं, ऐसे ही वह अभिमानशून्य अहम् जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर (अपने मतका संस्कार रहनेसे) अन्य दार्शनिकोंसे मतभेद करनेवाला होता है । तात्पर्य है कि उस सूक्ष्म अहम् के कारण मुक्त पुरुषको अपने मतमें सन्तोष हो जाता है । जबतक अपने मतमें सन्तोष है, अपनी मान्यताका आदर है, तबतक दूसरे दार्शनिकोंके साथ एकता नहीं होती । साधन तो अलग-अलग होते हैं, पर साधन-तत्त्व एक होता है अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि सभी साधन मिलकर साधन-तत्त्व होता है । मुक्त पुरुषका मत साधन-तत्त्व होता है । परन्तु वह साधन-तत्त्वको ही साध्य मानकर उसमें सन्तोष कर लेता है ।

जीव ईश्वरका अंश है, इसलिये वह जिस मतको पकड़ लेता है, वही उसको सत्य दीखने लग जाता है । अतः साधकको चाहिये कि वह अपने मतका अनुसरण तो करे, पर उसको पकडे नहीं अर्थात् उसका आग्रह न रखे । न ज्ञानका आग्रह रखे, न प्रेमका । वह अपने मतको श्रेष्ठ और दूसरे मतको निकृष्ट न समझे, प्रत्युत सबका समानरूपसे आदर करे । गीताके अनुसार जैसे ‘मोहकलिल’ का त्याग करना आवश्यक है, ऐसे ही ‘श्रुतिविप्रतिपत्ति’ का भी त्याग करना आवश्यक है (गीता २/५२-५३); क्योंकि ये दोनों ही साधकको अटकानेवाले हैं । इसलिये साधकको जबतक अपनेमें दार्शनिक मतभेद दीखे, सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव न दीखे, तबतक उसको सन्तोष नहीं करना चाहिये । अपनेमें मतभेद दीखनेपर वह साधन-तत्त्वतक तो पहुँच सकता है, पर साध्यतक नहीं पहुँच सकता । साध्यतक पहुँचनेपर अपने मतका आग्रह नहीं रहता और सभी मत समान दीखते हैं —


पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और ।
‘संतदास’ घड़ी अरठकी, ढुरे एक ही ठौर ॥
नारायण अरु नगरके, ‘रज्जब’ राह अनेक ।
कोई आवौ कहीं दिसि, आगे अस्थल एक ॥

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे