।। श्रीहरिः ।।

नित्ययोगकी प्राप्ति-१


संसारमें जितने भी पदार्थ हैं, वे सब-के-सब आगन्तुक हैं अर्थात् हरेक पदार्थका संयोग और वियोग होता है । क्रियाओंका आरम्भ होना क्रियाओंका संयोग है और क्रियाओंका समाप्त हो जाना क्रियाओंका वियोग है । ऐसे ही संकल्पोंका भी संयोग और वियोग होता है । संकल्प पैदा हो गया तो संयोग हो गया । और संकल्प मिट गया तो वियोग हो गया । अतः संयोग और वियोग पदार्थोंके साथ भी है । क्रियाओंके साथ भी है और मानसिक भावोंके साथ भी है ।

संयोग और वियोग—दोनोंमें अगर विचार किया जाय तो जो संयोग है, वह अनित्य है और जो वियोग है, वह नित्य है । यह खास समझनेकी बात है । जैसे, आपका और हमारा मिलना हुआ तो यह संयोग हुआ एवं आपका और हमारा बिछुड़ना हो गया तो यह वियोग हुआ । मिलनेके बाद बिछुड़ना जरुर होगा, परन्तु बिछुड़नेके बाद फिर मिलना होगा–यह नियम नहीं । अतः वियोग नित्य है । पहले आप नहीं मिले तो वियोग रहा और आप बिछुड़ गए तो वियोग रहा । वियोग स्थायी रहा । जितनी देर आप मिले हैं, उतनी देर यह संयोग भी निरन्तर वियोगमें ही बदल रहा है । जैसे, एक आदमी पचास वर्ष लखपति रहा । जब उसे लखपति हुए एक वर्ष हो गया, तब पचास वर्षोमें से एक वर्ष कम हो गया अर्थात् एक वर्षका वियोग हो गया । अतः संयोगकालमें भी वियोग है ।


संयोगसे होनेवाले जितने भी सुख हैं, वे सब दु:खोंके कारण अर्थात् दु:ख पैदा करनेवाले हैं—‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते’ (गीता ५/२२) । अत: संयोगमें ही दु:ख होता है । वियोगमें दु:ख नहीं होता । वियोग (संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद) में जो सुख है, वह अनन्त है, अपार है । उस सुखका वियोग नहीं होता; क्योंकि वह नित्य है । जब संयोगमें भी वियोग है और वियोगमें भी वियोग है तो वियोग ही नित्य हुआ । इस नित्य वियोगका नाम ‘योग’ है । गीता कहती है—‘तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (गीता ६/२३) अर्थात् दु:खोंके संयोगका जहाँ सर्वथा वियोग है, उसको योग कहते हैं । अत: संसारके साथ वियोग नित्य है और परमात्माके साथ योग नित्य है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे - पेज ७५८