।। श्रीहरिः ।।

नित्ययोगकी प्राप्ति-२


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
‘योग’ नाम किसका है ? पातञ्जलयोगदर्शन ने चित्तकी वृत्तियोंके निरोधको योग कहा है—‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ (१/२) । परन्तु गीता समताको योग कहती है—‘समत्वं योग उच्यते’ (२/४८) । यह समता नित्य रहती है । संयोगसे पहले भी समता है, अन्तमें वियोग होने पर भी समता है और संयोगके समय भी समता है । इस प्रकार समतामें नित्य स्थिति ही नित्ययोग है । इसलिए नित्य योगका जिसको अनुभव हो गया है; उसको गीताने ‘योगारूढ़’ कहा है । योगारूढ़की पहचान क्या है ? इसके लिये गीताने तीन बातें बतायी हैं- पदार्थोंमें आसक्ति न होना, क्रियाओंमें आसक्ति न होना और सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग होना—

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।

सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥
(गीता ६/४)

तात्पर्य है कि इन्द्रियोंके भोगोंमें और क्रियाओंमें आसक्ति न हो तथा भीतरसे यह आग्रह भी न हो कि ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिए । ‘संकल्प’ नाम किसका है ? ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये, ऐसा मिलना चाहिये और ऐसा नहीं मिलना चाहिये, ऐसा संयोग होना चाहिये और ऐसा संयोग नहीं होना चाहिये—इसको ‘संकल्प’ कहते हैं । अत: न तो पदार्थों में आसक्ति हो और न पदार्थोंके अभावमें आसक्ति हो, न क्रियाओंमें आसक्ति हो और न क्रियाओंके अभावमें आसक्ति हो तथा कोई संकल्प न हो तो ‘योगारूढ़’ हो गया । तात्पर्य है कि पदार्थ मिले या न मिले, क्रिया हो या न हो, इनका कोई आग्रह नहीं हो—‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३/१८) । पदार्थ मिलें तो अच्छी बात, न मिलें तो अच्छी बात ! क्रिया हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात ! संकल्प पूरा हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात ! वृत्तियोंका निरोध हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात ! अपना सम्बन्ध नहीं है इनसे ।

इन्द्रियोंके भोगोंमें और कर्मोंमें आसक्ति न होनेका अर्थ हुआ—अचाह और अप्रयत्न होना । इन्द्रियोंके भोगोंमें, पदार्थोंमें आसक्ति न हो तो ‘अचाह’ हो गये और क्रियाओंमें आसक्ति न हो तो ‘अप्रयत्न’ हो गये । तात्पर्य है कि चाहनाका भी अभाव हो और प्रयत्नका भी अभाव हो । अचाह और अप्रयत्न हुए तो परमात्मासे अभिन्नता स्वत: हो गयी । वास्तवमें अभिन्नता हो नहीं गयी, अभिन्नता थी । अचाह और अप्रयत्न न होनेसे उसका अनुभव नहीं होता था । चाह और क्रियाका अभाव हुआ तो स्वरूपमें स्थितिका, नित्ययोगका अनुभव हो गया ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे