।। श्रीहरिः ।।

नित्ययोगकी प्राप्ति-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मामें आपकी स्थिति निरन्तर है, आपकी समझमें आये या न आये । आप संसारके साथ जितना सम्बन्ध मानते हैं, उतनी आपकी नित्ययोगसे विमुखता है ! संसारमें सिवाय धोखेके कुछ मिलनेवाला नहीं है । संसारमें सब संयोगका, संबंधोंका वियोग ही होगा—

सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ता: समुच्छ्रया: ।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥
(वाल्मीकि।२/१०५/१६)

‘समस्त संग्रहोंका अन्त विनाश है, लौकिक उन्नतियोंका अन्त पतन है, संयोगोंका अन्त वियोग है और जीवनका अन्त मरण है ।’

परन्तु परमात्माके साथ जो नित्ययोग है, वह जीवमात्रको सदा प्राप्त है । संयोगजन्य सुखमें फँस जाते है, इसलिये परमात्माके साथ नित्य-सम्बन्धकी तरफ दृष्टि नहीं जाती । तात्पर्य है कि नित्ययोगका आभाव नहीं हुआ है, केवल उधर दृष्टि नहीं है । भोगी-से-भोगी, रागी-से-रागी, पापी-से-पापी, पुण्यात्मा-से-पुण्यात्मा, मुक्त-से-मुक्त, मुर्ख-से-मुर्ख, विद्वान-से-विद्वान, कोई क्यों न हो, नित्ययोगसे उसका वियोग कभी हुआ नहीं, कभी होगा नहीं, कभी हो सकता नहीं । उस नित्ययोगकी प्राप्ति करना ही गीताका खास सिद्धान्त है । नित्ययोगकी प्राप्ति क्या है ? अप्राप्त (संसार) के माने हुए सम्बन्धको मिटा देना ही नित्ययोगकी प्राप्ति करना है । अप्राप्तके साथ हमने सम्बन्ध माना है, इसीसे नित्याप्राप्तकी तरफसे हम विमुख हो गये हैं ।नित्ययोग तो ज्यों-का-त्यों है । परन्तु संसारका संयोग कभी रहा नहीं, कभी रहेगा नहीं, कभी रह सकता नहीं । संयोग तो वियोगमें ही बदलेगा । संयोगको आप कभी रख नहीं सकते और वियोग आपको कभी छोड़ नहीं सकता ।

पदार्थोंका सम्बन्ध होगा तो उनका वियोग मुख्य रहेगा । क्रियाएँ होगी तो उनका भी वियोग मुख्य रहेगा । संकल्पोंका भी वियोग होगा । ऐसा हो जाय और ऐसा नहीं हो जाय—ये दोनों ही वियोगमें बदलेंगे । ऐसा होना चाहिये—इसका भी वियोग होगा और ऐसा नहीं होना चाहिये—इसका भी वियोग होगा । परमात्माका योग ही नित्य रहेगा । संकल्प पूरा हो जाय तो भी संयोग नहीं रहेगा और संकल्प पूरा नहीं होगा तो भी संयोग नहीं रहेगा । आप ‘सर्वसंकल्पसन्न्यासी’ स्वतःसिद्ध है । संयोगमें आप रस लेने लगते हैं तो आपकी नित्ययोगसे विमुखता हो जाती है । नित्ययोगका वियोग नहीं होता, विमुखता होती है । जब नित्ययोगके सम्मुख हो जाओगे, तब अनन्त जन्मोंके पाप नष्ट हो जायँगे—

‘सनमुख होई जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥’

नित्ययोगके सम्मुख होनेपर पाप बेचारा कहाँ टिकेगा ? वह तो विमुखातामें ही टिकता है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे