।। श्रीहरिः ।।

नित्ययोगकी प्राप्ति-४


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
नित्ययोगकी प्राप्तिके लिये जो योगमें आरूढ़ होना चाहता है, उसके लिये कर्म करना कारण है—‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’ और योगरुढ होनेपर अर्थात् संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर एक शान्ति मिलती है, वह शान्ति परमात्माकी प्राप्तिमें कारण है—‘योगारूढ़स्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते’ (गीता ६/३) । तात्पर्य है कि जो योगारूढ़-अवस्था है, उसमें राजी नहीं होना है । उसमें राजी होनेसे, उसका भोग करनेसे अटक जाओगे, जिससे परमात्मप्राप्ति होनेमें कई दिन लग जायँगे । जैसे, पहले बालककी खेलमें रूचि रहति है । परन्तु जब उसकी रूचि रुपयोमें होती है, तब खेलकी रूचि अपने-आप मिट जाती है । ऐसे ही जबतक परमात्मप्राप्तिका अनुभव नहीं हुआ है, तबतक उस शान्तिमें रूचि रहति है अर्थात् शान्ति बहुत बढ़िया मालूम देती है । परन्तु कुछ दिनके बाद शान्तिकी रूचि अपने-आप मिट जाती है । अगर उस शान्तिका उपभोग न करो, उससे उपराम हो जाओ तो बहुत जल्दी परमात्मप्राप्तिका अनुभव हो जायगा ।

योगारूढ़ होनेमें कर्म करना कारण है अर्थात् कर्म करते-करते जब सबका वियोग हो जायगा, तब योगारूढ़ हो जाओगे । कर्म करनेसे योगकी प्राप्ति होगी—इसका नाम ‘कर्मयोग’ है; क्योंकि कर्मोंकी समाप्ति हो जायगी और योग नित्य रहेगा । क्रियाओंकी समाप्ति, पदार्थोंकी समाप्ति, संयोगोंकी समाप्ति (सम्बन्ध-विच्छेद) होनेपर नित्ययोग रह जायगा । ऐसे ही ज्ञानके द्वारा संसारसे वियोग किया जाय तो यह ‘ज्ञानयोग’ है । एक चीज रहनेवाली (अविनाशी) है और एक चीज नहीं रहनेवाली (नाशवान्) है । नहीं रहनेवाली चीजसे वियोग तो हो ही रहा है । केवल आप अनुभव कर लो कि जितने भी पदार्थोंका संयोग है, वह प्रतिक्षण वियोगमें बदल रहा है । परन्तु इनको जाननेवाला (साक्षी) ज्यों-का-त्यों रहता है । इस प्रकार विचारके द्वारा संसारके संयोगका वियोग करना ज्ञानयोग है । ऐसे ही संसारका सम्बन्ध जितना टूटेगा, उतना परमात्माके साथ सम्बन्ध जाग्रत् होगा । यह ‘भक्तियोग’ है । अब भी परमात्माके साथ किसी भी प्राणीका वियोग नहीं है । कारण कि परमात्मा सब देशमें, सब कालमें, सब वस्तुओंमें, सम्पूर्ण क्रियाओमें, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें, सम्पूर्ण अवस्थोओंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । संसारको आदर देनेसे हम परमात्मासे विमुख हो गये । परमात्मा हमारेसे कभी विमुख नहीं हुए ।

कर्मके द्वारा योगमें पहुँचो तो कर्मयोग हो गया, ज्ञानके द्वारा योगमें पहुँचो तो ज्ञानयोग हो गया । भक्तिके द्वारा योगमें पहुँचो तो भक्तियोग हो गया । कर्म, ज्ञान और भक्ति—तीनों योगमें समाप्त हो जाते हैं अर्थात् योगमें सब एक हो जाते हैं । उस योगमें सबकी स्वतःसिद्ध स्थिति है । इस नित्य स्थितिको संभालना है—‘संकर सहज सरूप सम्हारा’ (मानस १/५८/४) । तात्पर्य है कि खयाल न होनेसे उसका पता नहीं था, पर खयाल होते ही पता लग गया कि ओहो ! यह बात है !! कितनी सुगम, कितनी श्रेष्ठ बात है !


(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे