।। श्रीहरिः ।।

नित्ययोगकी प्राप्ति-५


(गत् ब्लॉगसे आगेका)

‘यदा ही यदा हि नेन्द्रियार्थेषु

न कर्मस्वनुषज्जते ।


सर्वसंकल्पसंन्यासी

योगारूढस्तदोच्यते ॥’

(गीता ६/४)

—यहाँ ‘यदा’ और ‘तदा’ पद देनेका तात्पर्य है कि आप जिस समय पदार्थोमें, क्रियाओंमें और संकल्पमें आसक्ति नहीं करेंगे, उसी समय आप योगारूढ़ हो जायँगे । अब ऐसा आप एक घण्टेमें कर लें, एक जन्ममें कर लें अथवा अनेक जन्मोंमें कर लें, यह आपकी मरजी है !

योगकी प्राप्ति (अनुभूति) होनेपर फिर उससे कभी निवृत्ति नहीं होती—‘यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः’ (गीता १५/४) । कारण कि निवृत्ति गुणोंके संगसे होती है—‘कारणं गुणसङ्गोस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । वहाँ गुणोंका अत्यन्त अभाव है, फिर निवृत्ति कैसे होगी ? भगवान् का अंश भगवान् में मिल गया ! जैसे, आप कितने ही बड़े धनी हैं और बड़े-बड़े होटलोंमें बैठे हैं, फिर भी आपका नाम मुसाफिर है । घर चाहे टूटा-फूटा छप्पर हो, पर वहाँ पहुँच गये तो अब आप मुसाफिर नहीं रहे, घर पहुँच गये । ऐसे ही नित्ययोगकी प्राप्ति हो गयी तो हम अपने घर पहुँच गये !

अभी वस्तुओंकी और क्रियाओंकी सत्ता मानते हैं, इसलिये कहते हैं—‘यदा ही नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते’ । वास्तवमें इनकी स्वतंत्र सत्ता ही नहीं है । परमात्मतत्त्वमें न वस्तु है और न क्रिया है । वह वस्तुरहित और क्रियारहित तत्त्व है, इसलिये उसकी प्राप्ति अभ्याससाध्य नहीं है । मन-बुद्धि-इन्द्रियोंकी सहायता लेते हैं और प्रयत्न करते हैं, तब अभ्यास होता है । परमात्मतत्त्व तो ज्यों-का-त्यों है । उसकी प्राप्तिमें विधि नहीं चलती, प्रत्युत निषेध चलता है । वस्तु और क्रियाका निषेध करनेपर वह स्वतः है—‘शिष्यते शेषसञ्ज्ञः’ । इसलिये इसमें कुछ करनेकी बात ही नहीं है । यह करण-निरपेक्ष तत्त्व है ।

जिसके द्वारा तत्काल क्रियाकी सिद्धि होती है, उसका नाम ‘करण’ होता है—‘साधकतमं करणम्, ‘क्रियाया निष्पत्तिर्यद् व्यापारादनन्तरम्’ । जैसे, ‘रामके बाणसे बालि मारा गया’—इस वाक्यमें करणत्व बाणमें है, धनुष्य, प्रत्यंचा, हाथ आदिमें नहीं । अतः क्रियाकी सिद्धिमें करण काम आता है । परन्तु जहाँ क्रिया है ही नहीं, वहाँ करण क्या काम आयेगा ? क्रियारहित तत्त्वमें कुछ न करना ही ‘करना’ है । कहते हैं कि अन्तःकरणकी शुद्धिसे वह तत्त्व मिलता है । परन्तु अन्तःकरणकी शुद्धिसे वह तत्त्व मिलता है, जो करण-साध्य होता है । जो तत्त्व करण-साध्य है ही नहीं, उसकी प्राप्तिमें अन्तःकरणकी शुद्धि-अशुद्धिसे क्या मतलब ? मतलब ही नहीं है । वास्तवमें करणके साथ सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे करणकी जैसी शुद्धि होती है, वैसी शुद्धि किसी उद्योगसे कभी हुई नहीं, कभी होगी नहीं और कभी हो सकती नहीं । कारण कि उद्योग, प्रयत्न करेंगे तो जडकी सहायता लेंगे । यदि जडकी सहायता लेंगे तो जडसे ऊँचे कैसे उठेंगे ?

जिन क्रियओंका आदि और अंत होता है, उन क्रियाओंके जनकको ‘कारक’ कहते है । नित्ययोगकी प्राप्तिमें किसी कारककी जरुरत नहीं है अर्थात् कर्ताकी, कर्मकी, करणकी, अधिकरणकी सम्प्रदानकी, अपादानकी, किसीकी भी जरुरत नहीं है, उसकी प्राप्तिमें इन सभी कारकोंका वियोग है । वह कारक-निरपेक्ष स्वतःसिद्ध तत्त्व है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे