।। श्रीहरिः ।।

नित्ययोगकी प्राप्ति-६

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
जैसे परमात्मामें क्रिया और वस्तुका, कर्तृत्व और भोक्तृत्वका अभाव है, ऐसे ही आत्मामें भी कर्तृत्व और भोक्तृत्वका अभाव है—शरीरस्थोपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/३१) अर्थात् शरीरमें रहते हुए भी आत्मा न करता है और न लिप्त होता है । तात्पर्य है कि कर्तृत्वका अभाव और निर्लिप्तता पहलेसे ही विद्यमान है, इनको कहीं से लाना नहीं है । न कर्तृत्वका अभाव करना है और न निर्लिप्तता लानी है, ये तो स्वतःसिद्ध हैं । कर्तृत्व और लिप्तता अपनी बनायी हुई है; अतः इनका त्याग करना है । इनका त्याग होते ही नित्ययोग स्वतःसिद्ध है * । भगवान् कहते है—

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥
(गीता१४/१९)

‘जब विवेकी मनुष्य तीनों गुणोंके सिवाय अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता और अपनेको गुणोंसे पर अनुभव करता है, तब वह मेरे स्वरुपको प्राप्त हो जाता है ।’


—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे (पूरा लेख पढनेके लिये लिंकको क्लिक करें)

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhansudhasindhu/sarwopyogi/sarw100_758.htm

टिप्पणी—*इस विषयको विस्तारसे समझनेके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित ‘गीता दर्पण’ में आया ‘गीतामें कर्तृत्व-भोक्तृत्वका निषेध’ शीर्षक लेख देखना चाहिये ।

एक परमात्मा हैं और एक परमात्माकी शक्ति प्रकृति है । उस प्रकृतिमें ही मात्र परिवर्तन होता है, और उस प्रकृतिका जो आधार, प्रकाशक, आश्रय है, उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता । जिस प्रकृतिमें परिवर्तन होता है, उसीको गीताने कई तरहसे बताया है; जैसे— सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं (१३/२९); गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके गुणोंके द्वारा ही होती हैं (३/२७-२८;१४/२३); इन्द्रियाँ ही इन्द्रियाँके विषयोंमें बरत रही हैं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ इन्द्रियाँके द्वारा ही होती हैं (५/९) । इन्द्रियोंके द्वारा क्रियाएँ होनेकी बातको भी गीताने कई तरहसे बताया है—कहीं शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिके द्वारा क्रियाओंका होना बताया है (५/११), कहीं शरीर,कर्ता, करण, चेष्टा और दैव-(संस्कार-) को क्रियओंके होनेमें हेतु बताया है (१८/१४), कहीं शरीर, वाणी और मनको क्रियाओंके प्रकट होनेके द्वार बताया है (१८/१५) और कहीं क्रियाओंके होनेमें स्वभावको हेतु बताया है (५/१४) । वास्तवमें प्रकृति, गुण और इन्द्रियाँ—ये तीनों तत्त्वसे एक ही हैं; क्योकि प्रकृति मूल है, प्रकृतिका कार्य गुण है और गुणोंका कार्य इन्द्रियाँ है । इससे यही सिद्ध हुआ कि कर्तृत्व अर्थात् मात्र करना प्रकृतिमें ही है, परमात्माके अंश जीवात्मा-(पुरुष-) में नहीं है; क्योंकि कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको उत्पन्न करनेमें प्रकृतिको हेतु बताया गया है—‘कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते’ (१३/२०) ।

भोक्तृत्वमें पुरुषको हेतु बताया गया है—‘पुरुषः सुखदुःखनां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते’ (१३/२०) । परन्तु वास्तवमें प्रकृतिस्थ पुरुष ही हेतु बनाता है—‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते’ (१३/२१) । यहाँ ‘न करता है’—इसका अर्थ है कि इसमें कर्तृत्व नहीं है, और ‘न लिप्त होता है’—इसका अर्थ है कि इसमें भोक्तृत्व नहीं है ।
जब स्वयं कर्मेन्द्रियों-(शरीर आदि-)के साथ मिल जाता है, तब यह कर्ता बन जाता है और जब ज्ञानेन्द्रियों-(मन, वाणी आदि-)के साथ मिल जाता है, तब यह भोक्ता बन जाता है । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि कर्मेंद्रियोंके साथ मिलनेके समय यह भोक्ता नहीं है, और ज्ञानेन्द्रियोंके साथ मिलनेके समय यह कर्ता नहीं है, प्रत्युत यह कर्मेंद्रियोंकी प्रधानतासे अपनेको कर्ता और ज्ञानेद्रियोंकी प्रधानतासे अपनेको भोक्ता मान लेता है । जबतक बोध (तत्वज्ञान) नहीं हो जाता, तबतक यह माना हुआ कर्तृत्व-भोक्तृत्व रहता है ।


—‘गीता दर्पण’ पुस्तकसे लेख-५७, पेज-१५९(सम्पूर्ण लेख पढनेके लिये लिंक पर क्लिक करें)
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/GeetaDarpan/purvarth/ch57_159.htm