।। श्रीहरिः ।।

सब जग ईश्वररूप है-१

गीताका सर्वोपरि सिद्धान्त है—‘वासुदेवः सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ भगवान् ही हैं । संसारके विषयमें दार्शनिकोंके अनेक मतभेद हैं । कोई अजातवाद मानता है, कोई दृष्टिसृष्टिवाद मानता है, कोई विवर्तवाद मानता है, कोई परिणामवाद मानता है, कोई आरम्भवाद मानता है, पर गीता कोई वाद न मानकर ‘वासुदेवः सर्वम्’ को ही मुख्य मानती है । वासुदेवः सर्वम्’ में सभी वाद, मत समाप्त हो जाते हैं । कारण कि जबतक अहम् की सूक्ष्म गंध रहति है, तभीतक दार्शनिकोंमें और दर्शनोंमें मतभेद रहता है, जबकि ‘वासुदेवः सर्वम्’ में अहम् की सूक्ष्म गंध भी नहीं रहति । इसलिये महात्मा तो सभी दार्शनिक हो सकते हैं, पर ‘वासुदेवः सर्वम्’का अनुभव करनेवाला महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है । भगवान् कहते हैं—


बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
(गीता ७/१९)

‘बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात् मनुष्यजन्ममें ‘सब कुछ वासुदेव ही है’—ऐसा जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है, वह महात्मा दुर्लभ होता है ।’

कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी, लययोगी, हठयोगी, राजयोगी, मन्त्रयोगी, अनासक्तयोगी आदि कई तरहके योगी हैं, जो अपने योगमें सिद्ध हो गये हैं, मुक्त हो गये हैं, पर उनको भगवान् ने दुर्लभ नहीं बताया है, प्रत्युत ‘सब कुछ वासुदेव ही है’—इसका अनुभव करनेवाले महात्माको ही दुर्लभ बताया है । परन्तु अपने लिये भगवान् कहते है—


अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
(गीता ८/१४)

‘हे पार्थ ! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ ।’

तात्पर्य है कि भगवान् ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करनेवाले महात्माको तो दुर्लभ बताते हैं, पर अपनेको सुलभ बताते हैं । इसलिये एक सन्तने कहा है—


हरि दुरलभ नहिं जगतमें, हरिजन दुरलभ होय ।
हरि हेरयाँ सब जग मिले, हरिजन कहीं एक होय ॥

संसारमें भगवान् दुर्लभ नहिं है, प्रत्युत महात्मा दुर्लभ है । ऐसा कोई देश, काल, वस्तु, क्रिया, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना नहीं है, जिसमें भगवान् परिपूर्ण न हों । भगवान् तो सब जगह हैं, पर भगवान् का प्यारा भक्त सब जगह नहीं होता । इसलिये कहा है—


हरि से तू जनि हेत कर, कर हरिजनसे हेत ।
हरि रीझे जग देत हैं, हरिजन हरि ही देत ॥


भगवान् प्रसन्न होते हैं, तो जीवको मानवशरीर देते हैं । उस मानवशरीरमें वह नरक, स्वर्ग और मोक्षको भी प्राप्त कर सकता है; ज्ञान, वैराग्य और भक्तिको भी प्राप्त कर सकता है*; और चौरासी लाख योनियोंको भी प्राप्त कर सकता है । परन्तु भगवान् के भक्त नरक, स्वर्ग आदि नहीं देते, प्रत्युत भगवान् को ही देते हैं ! ऐसे भक्तका स्वरुप गीता बताती है कि वह ‘वासुदेवः सर्वम्’ इस ज्ञानवाला होता है ।
टिपण्णी —

* नर तन सम नहीं कवनिउ देही । जीव चराचर जचत तेहि ॥
नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी । ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ॥
(मानस, उत्तर. १२१/५ )

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे