।। श्रीहरिः ।।

सब जग ईश्वररूप है-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
जैसे, आमका बगीचा होता है । उसमें बिना ऋतुके आमका एक फल भी नहीं होता, तो भी वह बगीचा आमका ही कहलाता है । अमरुदके बगीचेमें एक भी अमरूद देखनेमें नहीं आता, तो भी वह बगीचा अमरुदका ही कहलाता है । गेहूँकी खेतीमें एक दाना भी गेहूँका नहीं मिलता, तो भी वह खेती गेहूँकी ही कहलाती है । कारण यह है कि पहले आमके बीज बोये गये, फिर उनसे वृक्ष हुए और अन्तमें उनमें आमके फल (बीज) आयेंगे, इसलिये बीचमें भी वह आम ही कहलाता है । आरम्भमें अमरुदके बीज बोये गये और अन्तमें भी वृक्षोंपर अमरुदके फल (बीज) आयेंगे, इसलिये बीचमें भी वह अमरूद कहलाता है । पहले गेहूँ बोया गया और अन्तमें भी गेहूँ ही आयेंगे, इसलिये बीचमें भी वह खेती गेहूँकी ही कहलाती है । भगवान् ने गीतामें अपनेको संसारका सनातन और अव्यय बीज बताया है—

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।।
(७/१०)
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ।।
(९/१८)

भगवान् कहते हैं—

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।।
(गीता १४/४)

‘हे कौन्तेय ! सम्पूर्ण योनियोंमें प्राणियोंके जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सब (व्यष्टि शरीरोंकी) मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज-स्थापन करनेवाला पिता हूँ ।’

सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्तिके चार खानी अर्थात् स्थान हैं—(१) जरायुज—जेरके साथ पैदा होनेवाले मनुष्य, गाय, भैंस, भेड, बकरी, कुत्ता आदि, (२) अण्डज—अण्डेसे पैदा होनेवाले पक्षी, साँप, गिलहरी, छिपकली आदि, (३) उद्भिज—पृथ्वीका भेदन करके ऊपरकी तरफ निकलनेवाले वृक्ष, लता, दूब, घास, अनाज, आदि, और (४) स्वेदज—पसीनेसे पैदा होनेवाले जूँ, लीख आदि । इन चार स्थानोंसे चौरासी लाख योनियाँ पैदा होती हैं । इन योनियोंमें दो तरहके जीव होते हैं—स्थावर और जंगम । वृक्ष, लता, दूब, घास आदि एक ही जगह रहनेवाले जीव ‘स्थावर’ कहलाते है और मनुष्य, पशु, पक्षी आदि चलने-फिरनेवाले जीव ‘जंगम’ कहलाते है । इन जीवोंमें भी कोई जलमें रहनेवाले हैं, कोई आकाशमें रहनेवाले है, और कोई भूमिपर रहनेवाले हैं—

जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड चेतन जीव जहाना ।।
(मानस, बाल.३/२)

इन चौरासी लाख योनियोंके सिवाय देवता, पितर, गन्धर्व, भूत, प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, बालग्रह आदि भी कई योनियाँ हैं । इन सम्पूर्ण योनियोंके बीज भगवान् हैं—

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्सान्मया भूतं चराचरम् ।।
(गीता १०/३९)

‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है, वह बीज मैं ही हूँ । कारण कि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ ।’


एतन्नानावाताराणां निधानां बीजमव्ययम् ।
यस्यांशांशेन सृज्यन्ते देवतिर्यङ्नरादयः ।।
(श्रीमद्भागवत १/३/५)

‘यही भगवान् नारायण अनेक अवतारोंके अव्यय बीज हैं । इनके छोटे-छोटे अंशसे देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियोंकी सृष्टि होती है ।’

अनन्त ब्रह्माण्डोंमें अनन्त जीव हैं, पर सभीका एक ही बीज है । तात्पर्य यह हुआ कि देखने, सुनने, चिन्तन करने आदिमें जो आता है, वह सब भगवान् ही हैं—‘वासुदेवः सर्वम्’ । संसारके आदिमें भी भगवान् थे और अन्तमें भी भगवान् रहेंगे, फिर बीचमें दूसरी चीज आ ही कैसे सकती है ? भगवान् कहते हैं—

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ।।
(श्रीमद्भागवत २/९/३२)

‘सृष्टिके पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टिके उत्पन्न होनेके बाद जो कुछ भी यह दृश्यवर्ग है, वह मैं ही हूँ । जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टिके बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जानेपर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ ।’

अतः भगवान् ही संसाररुपसे दीखते हैं । जैसे गेहूँकी खेती बीचमें घासरूपसे दीखती है । यदि किसी अनजान आदमीको वह खेती दिखायी जाय और कहा जाय कि यह गेहूँ है तो वह कहेगा कि ‘तुम ठगाई करते हो, मैंने गेहूँके सैकड़ों बोरे ख़रीदे और बेचे हैं । यह गेहूँ कैसे हो सकता है ? यह तो घास है ।’ परन्तु जानकार आदमीको वह घास न दिखकर गेहूँ ही दीखता है । ऐसे ही अनजान आदमी कहते हैं कि ‘ये तो मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, लता, पहाड़ आदि हैं, ये भगवान् कैसे हो सकते हैं ? यह तो संसार है, भगवान् है ही कहाँ ! किसीने देखा हो तो बताओ, कहाँ है ईश्वर ?’ परन्तु जानकर आदमीको वह संसार न दिखकर भगवान् ही दीखते हैं । उसकी दृष्टिमें सब भगवान्-ही भगवान् हैं—‘वासुदेवः सर्वम्’ ।


(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे